पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६३९

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सूरसागर। .. समाहीं ॥ चंदन तजि अंग भस्म वंतावत विरह अनल अति दाही । योगी. भरमत जहि लगि भूले सोताहै अपु माहीं । सूरश्याम ते न्यारे न पल छिन ज्यों घटते परछाहीं ॥८॥ मलार ॥ उधो कहिए बात सोहुती । जाहि ज्ञान सिखवन तुम आए सो कहों ब्रजमें कोहुती ॥ अंतहु सिखवन सुनहु हमारी कहियत वात विचारी । फुरत नं वचन कछू कहिवेको रहे वैन सोहारी॥ देखियतहै करुणाकी मूरति सुनियतहै परपरिक । सोइ करी जो मिटै हृदयको दाहु परै उरसीरक ॥ राजपंथते टारि वतावत उज्ज्वल कुचल कुपैडो। सूरदास सो समाइ कहाँलौ अनावदनमें कुम्हैडो॥९॥सारंगा हमतो नंदघोषके वासी । नाम गोपाल जाति कुल गोपक गोप गोपाल उपासी। गिरिवरधारी गोधनचारी वृंदावन अभिलासी । राजानंद यशोदा रानी जलनदी यनुनासी ॥ मीत हमारे परममनोहर कमलनयन सुखरासी । सूरदास प्रभु कहाँ कहांलौं अष्टसिद्धि नवनिधि दासी॥१०॥ सारंग ॥गोकुल सब गोपाल उपासी। जो गाहक साधनको ऊधो ते सव वसत ईशपुर कांसी।यद्यपि हरि हम तजी अनाथ कार तक रहात चरणन रसरासी। अपनी शीतलता नहिं तजई यद्यपि विधु भयो राहु गरासी ॥ किहि अपराध योग लिखि पठवत प्रेमभक्तिते करत उदासी।सूरदास सो कौन विरहिनी मांगि मुक्ति छाँडै गुणरासी॥29॥ मलार विज जन.सकल श्यामव्रतधारी । विना गोपाल और जेहि भावत ते कहिहैं व्यभिचारी ॥ योग मोट शिरवोझ आनि तुम कतधौं घोप उतारी। इतनिक दूरि जाहु चलि काशी जहां विकतहै प्यारी ॥ यह संदेश सुनैको मधुकर अतिमंडली अनन्य हमारी । जो रसरीति कही हरि हमसों सो क्यों जाति विसारी।महामुक्तिकोऊ नहिं वाँछ यदपि पदारथ चारी । सूरदास स्वामी मनमोहन मूरति की बलिहारी।।१२॥ धनाश्री ।कहालौं कीजै बहुत बडाई । अति अगाध मन अगम अगोचर मनसो. तहाँ नजाई ।। जाके रूप नरेख वरन वपु नाहिन संगत सखा सहाई । ता. निर्गुण सों नेह निरंतर. क्यों निवहैरी माई। जल विन तरंग भीति विन लेखन. विन चेताह चतुराई।था व्रजमें कछु नहीं चाहहै ऊधो आनि सुनाई। मन चुभि रह्यो माधुरी मूरति अंग अंग उरझाई । सुंदर श्याम कमलदल लोचन सूरदास सुखदाई।।१३।।नयाऊधो कछुक समुझि परी।तुम जु हमको यागे ल्याए भली करनी करी ॥ इक विरह जरि रही हरिके सुनत अतिही जरी । जाहु जिनि अब लोन लावहु देखि तुमही डरीयोगपाती दई तुम कर बडे चतुर हरी।सूरदास स्वामीके रंग रचि कहांधरै गठरी ॥१४॥कान्हाकहत अलि तेरे मुख वातौ।कमलनयनकी कपट कहानी सुनत भयो तनुताताकत ब्रजराज काज गोकुलको सबै किए गहिनातौ तव नहिं निमिप वियोग सहति उर करत काम नहि हातौ।मधुवन जाइ कान्ह कुविजा संग मति भूलह सुधिसातौाज्यों गज यूथ नेक नहि विछुरत शरद मदन मदमातौ । सूरश्याम विन हम सब अबला यातन. कहाँ समातौ ॥१६॥ धनाश्री ॥तुम अलि कमलनयनके साथी । देखतभले काजको जैसे होत धूमके हाथी ।। सुंदरश्याम गड मद लंकृत सम श्रम जलकन छाजै । योग. ज्ञान दोउ दशन भोग रद करनी कुंभविराज।।जय शिशुहुते कुमार असुर हति याते प्रीतम जाने । अव भए जाइ विवस दासीके बजते प्रगट पराने ॥ करिकै कपट तुच्छ विद्यावश भगन करत अँग भटज्यों । सूर अवधि पढि मंत्र सजीवन मरिजीवति है नटज्यों ॥१६॥ सारंग ॥ ऐसो मुनियत द्वै वैशाखाजानत हौं जीवन काहेको जतन करौ जो लाख। मृगमद मिलै कपूर कुमकुमा केसरि मलया खाखः । जरति अग्निमें ज्यों घृत नायो तनु जरिढे हैं राख ॥ ता ऊपर लिखि योग पठावत खाडं नींव तजि दाख । सूरदास ऊधोकी बतियां उडि : make- -