पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४१

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(५४८) सूरसागर। .. . . .... ॥ सारंग ॥ ऊधो पूंछति ते वावरी । गोकुल तजो कुँवरि कारण नेह नहोति जो रावरी ॥जैसो वाज वोइए तैसो लुनिए लोग कहत सब बावरी । सूरदास प्रभु पारस परसै लोहो कनक वरावरी॥२७॥ ॥गौरी। मधुकर देखो दीनदशा। इतनी बातें तुमसों कहतिहैं जो तुम श्यामसखा ॥ जे कारेते सबै कुटिलहैं मृतगनके जोहता। तुम विरहिनी विरह दुख जानत कही यह गूढ कथा ॥ मन वशभयो श्रवण सुनि मुरली कुंजनि कुंज बसी । अवतो एक नभए सूर प्रभु घर बन लोग हँसी ॥२८॥ सारंगाजैसोकियो तुम्हारे प्रभु अलि तैसो भयो ततकाल । ग्रंथित सूत धरत तोहिं ग्रीवा जहांधरते बनमाल ॥ टेरि देत श्रीदामा द्रुम चढ़ि सरस वचन गोपाल । ते अब श्रवण अक्रूर प्रमुख सब कहत कंस कुशलात ॥ कोमल नील कुटिल अलकावलि रेखी राजत भाल। ऐसेशर त्यागे सुन सूरज फंदा न्याइ मराल॥२९॥मलाराविरचि मन बहुरि राचो आइटूिटी जुरै बहुत जतननिकरितऊ दोष नहिं जाइ ॥ कपट हेतुकी प्रीति निरंतर नाथि चोखाई गाइ । दूध फाटि जैसे भई कांजी कौन स्वाद करि खाइ। केरा पासि ज्यों वेरि निरंतर हालत दुख दैजाइ । स्वाति बूंद जैसे परै फनिक मुख परत विषैलैजाइ।एती केती तुमरी उनकी कहत बनाइ बनाइ । सूरदास दिगंवर पुरते रजक कहा व्योसाइ ॥ ३० ॥ ऊधो तुमहो अति वडभागी । अपरस रहत सनेह तगाते नाहिन मन अनुरागी ॥ पुरइनि पात रहत जल भीतर तारस देह नदागी । ज्यों जलं माह तेलकी गागरि बूंदन ताको लागी ॥ प्रीतिनदी महँ पाँव न वोरयो दृष्टि नरूप परागी। सूरदास अबला हमभोरी गुरचैंटी ज्यों पागी॥३३॥ धनाश्री। हमते हरि कवहीन उदास । रास खिलाइ पिआइ अधररस क्यों विसरत ब्रजवास ॥ तुमसों प्रेमकथाको कहियो मनहु काटिवो घास । वहिरो तान स्वाद कहा जानै गुंगो खात मिठास ॥ सुनरी सखी बहुरि हरि ऐहैं वहसुख बट्टै विलासासूरदास ऊधो हमको अब भए तेरहोमास॥३२॥तेरो बुरो न कोई माने । रसकी वात मधुप नीरसमुनि रसिक होइ सो जाने । दादुर वसै निकट कमलनके जन्म न रस पहिचान।अलि अनुराग उडत मन बांध्यो कही सुनत नहिं कान ॥ सरिता चली मिलन सागरको कूल सबै द्रुम भाने । कायर बकै लोभते भाग लरै सो सूर वखानै ॥ ३३ ॥ हम सब जानत हरिकी पाते।. तुम जो कहत वो राज्य करत नहिं जानत हो कछु कातै ॥ मारे कंस सुरन सुख दीनो असुर जरे पिरपातै । उग्रसेन वैठारि सिंहासन लोग कहत कुलनाते ॥ तपते राज राजते आगे तुम सब समुझत वातै । सुरश्याम यहि भांति सयाने हमहीको वदुसातै ।। ३४ ॥ नट ॥ ऊधौ है तू हरिके हितको । हम निर्गुण तवहीं ते जान्यो गुणमेच्यो जव पितुको।समुझहु नेक श्रवण दै सुनिए प्रगट वखानो नितकोरित्नघट कह क्यों निकसै विनुगुन बहुतै वितको।पूरणतातो तवही बूडी संग गए लैचितको । हमतौ-खगहि सूर सुनि षटपद लोक वटाऊ हितको ॥३६॥ काफी ।। आयो घोष बड़ो व्याप.री । लादि पोषि गुणज्ञान योगकी वजमें आनि उतारी ॥ फाटक दैक हाटक भागत भोरो निपट सुधारी। धुरहीते खोटो खायोहै लिये फिरत शिरभारी॥ इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अमारी । अपनो दूध छाँडिको पीवै खारे कूपको बारी ॥ ऊधो जाहु सवेरे ह्यांते वेगि गहर जनि लावहु । मुख माँगो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि देखावहु॥३६॥धनाश्री|उधो योग कहा है की जतु।ओढिअतहै की डसिअतहै कीधौं कहियता कीघौं जु-पतीजतु ॥ की कछुभलो खेलवना सुंदरिकी: कछु भूषण नीको । हमरे नंदनंदन जो चहित जीवन जीवन जीको । तुम जो कहत हार निगम निरंतर निगम नेति हैं रीतिप्रिगट रूपकी राशि मनोहर क्यों छांडै प्रतीति।गाइ चरावन गए घोषते. ) ।