पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४२

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दशमस्कन्ध-१० (६४९) अवहीं है फिरि आवता सोई सूर सहाय हमारे वेणु रसाल बजावत॥३७॥मलारामधुकर जानो ज्ञान तिहारो। जाने कहा राजलीलाकी अंत अहीर विचारो ॥ एक भली हम सबै सयानी एक संयानी सों मनमानो। लाज लए प्रभु आवत नाहीं है जो रहे खिसिमानो ॥ लै आवो हम कछू न कैहैं | मिलिहें प्राणपियाराव्याहो वसि धरो दश कुविना अंतहु श्याम हमारे।। सुनरी सखी कहूं नहिं कहि ए माधो आवन दीजै । सूरदास प्रभु आनि मिले जो हांसी करि करि लीजै ॥३८॥ मधुकर तुमही श्याम सखाई।पालागौं यह दोष वकसियो सन्मुख करत ढिठाई ॥ कौने रंक संपदा विलसी सोवत सपने पाई। धाम धुआँको कहो कवनकै कवनै धाम उठाई ॥ अरु कनके माला कर अपने कौने गूंथ बनाई । कहि कागजकी तरनी कीन्हे कौन तरयो सरजाई ॥ किन अकासते तोरि तुरैआ आनि धरी घरमाई।और कौन अवलन व्रतधारयो योग समाधि लगाई ॥इहि उर आनि रूप देखेकी आगि उठे अगिआई । सुन ऊधो तुम फिरि फिरि आवत यामें कौन बड़ाई ॥ सूरदास प्रभु ब्रज युवतिनको प्रेम कह्यो नहिं जाई ॥३९॥ गौरी ॥ मनकी मनहीं मांझ रही । कहिए जाइ कौनपै उधो नाहिंन परत कही ॥ अवधि अधार आश आवनकी तन मन व्यथासही । चाहति हुती गोहारि जितहिते तितहिते धार वही ॥ अब इन योग सँदेशन सुनि सुनि विरहिनि विरह दही। सूरदास अब धीर धरहि क्यों मर्यादा न लही ॥४०॥ गौरी तुमहिं दोष नहिं हम अति वोरी । रूप निरखि हग लागेहैं ढोरी ॥ चित चोराइ लियो मूरति सोरी।सुभग कलेवर कुमकुम खोरीगंजमाल उर पीत पिछोरी । यहिते जो नेकुल बुधि योरी ॥ गहत सोइ जो समात अकोरी । सुरश्याम सों कहियो एक ठोरी। यह उपदेश सुनहि ते आरी॥४१॥ नट ॥ श्याम तुम ठगसों प्रीति करी। काटे नाक पछोरे पूँछत ताते सब सुधरी ॥ ह्यां ऊधो काहेको आए कौनसी अटक परी। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन विनु सब पाती उघरी ॥ ४२ ॥ सारंग ॥ ऊधो वनत न राज भयो । नए गोपाल नई कुविजावनी नौतन नेह ठयो । नए सखा जोरे यादवकुल अरु नृपकंस हयो। नव तन नारि नए पुर कीन्हो तिन अपनाइ लयो ॥ विसरे रास विलास कुंज सब अपनी जात गयो। सूरदास प्रभु बहुत वटोरी दिन दिन होत नयो॥४३॥ अब तुम कापर कपट बनावत । नाहिन कंस कान्ह नहिं गोकुल को पठवत कहा आवत ॥ जिन मोहन वैसी वारिजकार सुख तन सींचि बढायो।सो पुनि ऊधो कर कारनको योग कुठार पठायो।। इतनो तो मानुपही जानै जिनके मति थोरी। धाखेही विरवा लगाइकै काटत नाहि वहोरी॥ वै प्रवीन ऊधो अति नागर जानि परस्पर प्रेम । कैसकै पठवत वै आवत टारनको हित नेमास्वर्गहु गए कंस अपराधी परयो हमारे खोज । दृष्टिते टारि ध्यानहुते टारत वाऊ सबको चोज । विद्यमान आए जे छल करि तिन अपनो फल पायो ह्यहि हृदय सूरश्यामजी बनत न स्वांग बनायो॥ १४ ॥ अपने स्वारथके सब कोऊ । चुपकरि रहो मधुप सुन लंपट तुम देखे अरु ओजोजो कछु कहो कह्यो चाहतहो कार निरवारो सोऊ । अब मेरे मन ऐसी पटपद होवे होहु सुहोऊ ।। तव कत रास रच्यो वृंदावन ज्यों ज्ञानी हूतोऊ । लीने योग फिरत युवतिनमें बडे सुपथ तुम दोऊ ॥ छुटिगयो मान परेखोरे अलि हृदय हतो बहु जोऊ । सूरदास प्रभु गोकुल विसरो चित चिंतामणि खोऊ ॥ १५॥ नट ॥ कहत कत परदेशीकी बात । मंदिर अरघ अवधि वदी हमसों हरि अहार चलिजात ॥ शशि रिपु वरप सूर रिपु युगवर हर रिपु किए फिरे घात । मघपंचक लैगए श्याम धन आइ बनी यह बात ॥ नक्षत्र वेद ग्रह जोरि अर्घ करि-को वरज हम खात । सूरदास प्रभु तुम