पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४३

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(६६०) . . सरसागर। . . . . . . . . हि मिलनको कर मीडत पछितात ॥ ४६॥ मलार ।। ऊधो जानी न हरि यह बात । बैठे रथ पर चढे भोरही हँसत मधुपुरी जात ।। सुफलकसुत-मिलि ढंग ठान्यो है साधे विषमन घात । जेत क बडे धर्मध्वजा नामी संग प्रेम पथ पात ॥ यदुकुल में दोउ संत सबै कहैं तिनके ए उतपात । एकन हरे प्राण गोकुलके या पर योग कुशलात ॥ यद्यपि सूर प्रताप श्यामको दानव दुरि दुराता तथापि भवन भावनहिं ब्रज विनु खोजो दीपै सात ॥ १७॥ हम आल कैसके पतिआहि । वचन तुम्हारे हृदय न आवत क्योंकर धीर धराहि ॥ वपु आकार भेप. नहिं जाको कौन ठौर मन लागे । हौं करिरही कंठमें मनिआ निर्गुण कहा रसहि ते काज. । सूरदास सगुणमिलि मोहन रोम रोम सुखराज ॥ १८॥ मलार ॥ मधुकर जानतहैं सबकोऊ । जैसे तुम अरु सखां तिहारे गुणन आगरे दोज। सुफलकसुत कारे नख शिखते कारे तुम अरु वोऊ । सरवस हरन करत अपनेसुख कोउ कितो गुणहोऊ ॥ प्रेम कृपण थोरे वित वपुरी उवरत नाहिंन सोऊ। सूरं सनेह करै जो तुमसों सो पुनि आपु. विगोऊ॥ १९॥ मधुकर तुमरसलंपट लोग। कमलकोशनित रहत निरंतर हहिं सिखावत योग ॥ अपने काज फिरत बन अंतर निमिप नहीं अकुलात । पुहुप गए बहुरौ बल्लिनके नेक निकट नहिं जात ॥ तुम चंचल अरु चोर सकल अंग वातनको पतिमात । सूर विधाता धन्य रचे एइ मधुप सॉवरे गात॥५०॥सारंगामधुप रावरीये पहिचान । वासर समय अनत उठि बैठत पुहुपनकी तजि कानि।। बाटिका बहु विपिन जिनके एकवै कुम्हिलानि । तहां अगणित फूल फूले कौन ताके हानि ॥ काम पावक जरत छाती लोन लायो आनिं । योग पाती हाथ दीनी विष लगायो सानिशीशकी मणिहरी जाकी कौन जामें बानिानिठुरहो तुम सूरके प्रभु ब्रज तज्यो यह जानि ॥५१॥ को कहिहै हरिसों बात हमारी।यहतौ हम तवते जिय जानी जवते भए मधुप अधिकारी ॥ एकै प्रकृति एकई तवगति जे मनसिज असितहिक्यों भावै । प्रगटे नित नवकंज मनो हर ब्रजकी सरक करन कत आवै । कुटिल खीन चंपक चंचल मति सपही ते जुनिनारी। ताभ लिकी संगति बसि मधुपुरी सूरदास प्रभु सुरति विसारी॥५२॥ मधुकर तुम अति चतुर सुजान ले पहिले मनरंगे श्यामरँग अव नचढ़े रंग आन ॥ ए दोऊ लोचन विराटके विधि किये एक समान। भेद चकोर कियो ताहूमें विधु प्रीतम रिपुभान ॥ विरहा भेद भयो पालागौं तुमही पूरण ज्ञान। दादुर जलविन जिवै पदनभख मीन तजै हठिप्रानवारिजवदन नैन मेरे षटपद कय करिहैं मधुपान। सूरदास गोपिन परतिज्ञा छुवहिं न योग विरान॥५३॥ऊधो विरहो प्रेम करैराज्योंबिन पुट पट गहत नरंगको रंगनरसै पज्योंधर देह वीज अंकुर गिरि तौ सतफरनि फरै।ज्यों घट अनल दहत तन : पनो पुनि पय अमी भरै ॥ ज्यों रण शूर सहत शर सन्मुख तो रवि रथहि रै। सूर गोपाल प्रेम पथ चलि कार क्यों दुख सुख न डरै ।। ६४॥ मलार ॥ मधुकर प्रीति किए पछितानी। हम जा न्यो ऐसेहि निवहैगी उन कछु औरै ठानी ॥ वा मोहनको कौन पतीजै वोलतं मधुरी वानी। हमको लिखि लिखि योग पठावत आप करत रजधानी ॥ अवतो. सेज सुहाइ न हरि विन चित वत रैनि विहानी । जबते गमन कियो मधुवनको नैनन वरपत पानी ॥ कहियो जाइ श्याम सुंदर को अंतर्गतिकी जानी । सूरदास प्रभु मिलिकै विछुरे ताते भई दिवानी ॥ ५५॥ हमरे हरि हारि लकी लकरी । मन क्रम वचन नंदनंदन उर यह दृढ़ कार पकरी जागत सोवत स्वप्न दिवस निाश कान्ह कान्ह जकरी । सुनत हिए लागत हमैं ऐसोज्यों करुई ककरी ॥ सुतौ व्याधि हमको लें, आए देखी सुनि न करी। यह तो सूर ताहि लै सौंपी जिनके मन चकरी ॥६६॥ सारंग ॥ वात