पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४४

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(९५१) दशमस्कन्ध-१० हमारी मानो जौतौ । आवन कह्यो हुतो हमजीवति ताते उनही कौतौ।एक बोलकै लीन्हें सोई अप नी खोई देवति । ताते खरी मरत इहि ठहर वाही वचनहि सेवति ॥ इतनो कहो करो पिर राखो योग आफ्नो घरको । पैज खौंच मेटन आए हो तनक उजारो खरको ॥ नँदनंदन लै गए हमारी सब ब्रज कुलकी ऊव । सूरश्याम तजि और सूझै ज्यों खेरे की दूव ॥१७॥ मलार॥ श्याम मुख देखेही परतीति । जो तुम कोटि जतनकरि सिखवहु योग ध्यानकी रीति ॥ नाहिंन कछू सयान ज्ञान माहि यह हम कैसे मान । कहो कहा गहिए अनुभवको कैसे उरमें आनै ॥ एही मन- इक इक वह मूरति भंगी कीट समान।सूर शपथदै पूँछो ऊधो यह व्रज लोग सयाने ॥१८॥ सारंग। हरिहैं राजनीति पढिआए । समुझी वात कहत मधुकरसे समाचार सब पाए । पहिलेही अति चतुर हुते अरु गुर सब ग्रंथ दिखाए । बाढी बुद्धि कहत युवतिनको योग सँदेश पठाए ॥ आगेहूंके लोग भलेहो परहित डोलत धाए । अव अपने मन फेरि पाइ चलत जो होहिं पराए ॥ ते क्यों नीति करें आपुन जिन औरन अपथ छड़ाए। राजधर्म सुनि इहै सूर जिहि प्रजा नजाहिं सताए। ॥ ५९॥ वारक मिलत कहाहै होत । इतनहुँ मान कहा उहि कुविना पाएहैं परिपोत ॥ इतनिक दूरि भए कछु और विसरयो गोकुल गोत । कैसे जियहि वदन विनु देखे विरहिन विरहि नि सोत ॥ आए योग देन अवलनिको सुरभिकंठ वृष जोत । सूरदास प्रभु तो पै जीवहिं देखहि मुखकी द्योत ॥६० ॥ मलार ॥ मधुकर नाहिंन काज सँदेशो । इहिब्रज कौने योग लिख्यो है कोटि जतन उपदेशो ॥ रविके उदय मिलन चकईको शशिके समय अंदेशो । चातक क्यों वन वसत वापुरो वधिकहि काज वधेसो ॥ नगर आहि नागर बिनु सूनो कौन काज वसिवेसो । सूर स्वभाव मिटै क्यों कारे फनिकहि काज डसेसो ॥ ६१ ॥ उधो हम वह कैसे मानें । धूत धौल लंपट जैसे हरि तैसे और न जानें । सुनत संदेश अधिक तनु कंपत जनि कोउ डर तहाँ आने । जैसे वधिक गँवहिते खेलत अंत धनुहिया ताने । निर्गुणवचन कहहु जनि हम सों ऐसी करति न कानै । सूरदास प्रभुकीही जानों और कहै और कछु ठान॥६२||मलार ॥ ऊयो अब कछु कही नजाइ । रानीभई कूवरीदासी का वरणीजाइ ॥ जोइ जोइ मंत्र कहत कुविजाहै सोइ सोइ लिखत बनाइ । अंत अहीर प्रीति दासीसों मिटत न सहज सुभाइ ॥ छुटत नही गुण अवगुणनाको कानै कोटि उपाइासुर सुभाइ तजै नहिं कारो जो कीजै कोटि उपाइ॥३३॥मलाराबदलेको बदलो लैजाहु। उनकी एक हमारी दोइ तुम बड़े जनैओ आहु ॥ तुम अलि जानि अतिः भोरे संसारो चाहत दाव अपनी वेर मुकुरकै भागत हिए चौगुने चाव ।। अव तुम साखि बधो तहाँ जाई काहेको पाछताहु । सूरदास वह न्याउ निरहु हम तुम दोऊ साहु॥६४॥ मलार ॥ उधोनी यहि ब्रज विरह बढे । घर बाहर सरिता सर वन उपवन देखहु द्रुमन चढे ॥ दिन अरु रैनि सधूम भवनकै दिश दिश तिमिर मढें। इंदकरत अति प्रवल बलीवल जीवन अनल उढे ॥ जरि नहिं भई भसम तेही छिन जब हरि वचन रढे । सूरदास विपरीति विधाते यहितनु फेरि ठढे ॥६५॥ ऊधो जो तुम बात कही। ताको कछुअन उत्तर आवै समुझि विचारि रही ॥ पालागौं तुमही वूझतही तुमपर बुधि उमही। कैसे.शीतल होइ पवन जल पिए वियोग दही ॥ कुविजासों पढि तुमहि पठाए नागर नवल लही। अब जोई पद देहि कृपाकरि सोइ हम करें सही ॥ विछुरत विरह आमि. नाही जरी नैनन जलन वहीं अब सुनि शूल सहति सव सूरज कुलमर्याद ढही ॥६६॥ योग मिटि पतिआहू व्योहारु ॥ मधुवन वसि मधुरिपु सुनु मधुकर छाँडे व्रज आभारु ॥ धरणीधर गिरिधर कर धरिकै मुरलीधर