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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४५

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सूरसागर।


सुखसारु । अब लिखि योग सँदेशो पठवत व्यापक अगम अपारु । हाँसी अरु दुख सुनहु सखी सूश्रवण दशा संचारु । सूर प्राणतन तजत नयाते सुमिरि अवधि आधारु ॥६७॥ सारंग ॥ मधुकर जो हार कही सो करो । राजकाज चित दियो सांवरे गोकुल क्यों विसरो ॥ जेजें घोप रहे हम तेहिलौं संतत सेवा कीनी । वारक कबहुँ उलूखल वांध उह वॉधि जियलीनी ॥ जो हमसों काादे करें व्रज नायक बहुतै राजकुमारी । तो एई नंद कहा मिलिहैं और यशोमतिसी महतारी ॥ गोवर्धन कहुँ गोप वृंद सचु कहा गोरस सच पैवो।सूरदास अब सोई करिए बहुरि गोकुलहि ऐवो ॥६८॥ सोरठ॥ ऊधो हरि यह कहा विचारी।सदा समीप रहत वृंदावन करत विहार विहारी ॥ एकतौ रंग रचे कुविनाके विसरिगए सबनारीकछु इक मंत्र कियो उन दासी तेहि विनोद अधिकारी । दिन दश और रहो तुम इहां देखो दशा विचारी । प्राण रहतहै आशा लागे कर आ गिरिधारीतुमतौ कहत योगह नीको कहो कवन विधि की नाहम तन ध्यान नंदनंदनको निरखिनिरखिसो जीजै सुंदर श्याम कंठ वैजंती माथे मुकुट विराज। कमल नैन मकराकृत कुंडल देखतही भव भाजायाते योग न आवै मनमें तू नीके करि राखि । सूरदास स्वामीके आगे निगम पुकारत साखि ॥६९॥ विहागरो ॥ मधुकर वहरि न कबहुँ मिलैं हरि । कमल नयन मिलवेके कारण अपनो सो जतन रही बहुतै करि ॥ जेजे पथिक जात मधुवनको तोह सो व्यथा कहति पायन परि। कहे न प्रगट करौ यदुपति सो दुसह दोषकी अवधि गई ढरि ॥धीर न धरत प्रेम व्याकुल मन लेत उसास नीर लोचन भरि । सूरदास तनु थकित भयो अति इह वियोग सायर नसकत तरि ॥७०॥ सारंग ॥ मधुकर अब भयो नेह विरानी। बाहर हेत हातो कहवावत भीतर काज सयानी ॥ ज्यों शुक पिंजर माहँ उचारत ज्यों ज्यों कहत बखानी । छूटतही उडि मिले अपुन कुल प्रीत न पल ठहरानीयद्यपि मन नहिं तजत मनोहर तदपि कपटी जानी । सूरदास प्रभु कवन काजको माखी मधु लपटानी ॥ ७१॥ सोरठ ॥ हरिते भलो सुपति सीताको । जाके विरह जतन ए कीने सिंधु कियो नीताको ॥ लंका जारि सकल रिपु मारे देखतही मुखताको । दूत हाथ उन लिखि जो पठयो ज्ञान कह्योगीताको । तिनको कहा परेखो कीजै कुविजाके मीताको । चढि चढि सेज सातहू सिंधू विसरी जो चीताको । करि अति कृपा योग लिखि पठयो देखो डराइताको । सूरदास प्रभु हम कहा जानै अव लोभी वनिताको ॥ ७२ ॥ नट ॥ ऊधो हम ब्रजनाथ विसारी । जवते गमन कियो मथुराको चितवंत लोचन हारी ॥ महाप्रलय तब काहेको राखी इंद्र त्रास भवटारी । छूटत नहीं त्रास हृदयते तव न मुई अव मारी ॥ अवधि वदी हरि ते सव वीते आवन कहि जो सिधारी । सूरदास प्रभु कवधौं । मिलेंगे लैगए प्राण हमारी ॥७३॥ मलार ॥ प्रीति उन देखनको उत जानत । तौ यो बात कहत अलि ऐसे व्यथा नहीं पहिचानत ॥ जे गोपाल गृह गृह ब्रजमें ते चोर दूध दधि खात । ते अब दुखित देखि ब्रजवासिन निठुर भएते जात ॥ सूर कुटिलता जे सुनियतैहै लोग पुराणनि गावता । नख शिखलों विषरूप वसतपै मधुवन नाम कहावत ॥७४॥ तू अलि वात नहीं कहि जानत। निर्गुण कथा बनाइ कहत नाहं विरह व्यथा उर आनत ॥ प्रफुलित कमल देखि उठि धावत संव कुल संग लिए। और सुमन सौ बंधु याचतही फाटि नजात हिए ॥ चातक स्वाति बूंद जो ग्राहक सदा रहत इकरूप । कहा जानै दादुर जलपरत सागर औ सम कूप ॥ बात कहौ सहि ऐसी जासों जाके जिय तुम भावहु । सूर वचन जैसो उपदेशत तैसोही तुम पावहु ॥७५॥ ॥ सारंग ॥ कुटिल विनु और न कोई आवै। तौ ब्रजराज प्रेमकी बातें ताके हाथ पठावै ॥ प्रीति