पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६५२

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दशमस्कन्ध-१० रटत फिरत जैसे वकत बावरी । या वृंदावन सपन श्याम विनु तहां यमुना वहै सुभग सांवरी लाज नहोति उहै चालीजाति चलि नसकति आवै विरह तावरी । सूरदास प्रभु आनि मिलावहु ऊधो कीरति होइ रावरी॥२८॥ अथयशोमति संदेशंउद्धवमति ॥ धनाश्री ॥ऊधो तिहारे पाँइ लागतिहाँ कहि यो श्यामसो इतनी वात इतनी दूर वसत क्यों विसरे अपनी जननी तातजादिनते मधुपुरी सिधारे श्याम मनोहर गात । तादिनते मेरे नैन पपीहा दरश प्यास अकुलाता|जहां खेलनको ठौर तुम्हारे नंद देखि सुरझाता।जो कवहूं उठिजात खरिकलौं गाइ दुहावन प्रातादुहत देखि औरनके लरिका प्राण निकसि नहिं जात । सूरदास बहुरो कब देखों कोमल कर दधिखात ॥२९॥ मलार ॥ तव तुम मेरे काहेको आए । मथुरा क्यों नरहे यदुनंदन जोपै कान्ह देवकी जाए ॥ दूध दहाँ काहेको चोरयो काहेको वन गाइ चराए । अब अरिष्ट काली नहिं काढयो विष जलते सब सखा जिआए । सूरदास लोगनके भोरए काहे कान्ह अव होत पराए ॥३० ॥ सोरठ॥ उधो हम ऐसे नहिं जानी । सुतके हेत मर्म नहिं पायो प्रगटे सारंगपानी ॥ निशि वासर छातीसों लाई वालकलीला गाइ । ऐसे कवहूं भाग होहिंगे बहुरो गोद खेलाइ ॥ को अब ग्वाल सखा संग लीन्है सांझ समै व्रज आवै।। को अब चोरि चोरि दधि खैहै मैया कवन बोलावै ॥ विं दरत नाहिं वज्रकी छाती हरि वियोग क्यों सहिए। सूरदास अयं नँदनंदन विनु कहो कौन विधि रहिए॥३१॥ धनाश्री ॥ ऊधो जो अब कान्ह न ऐौजिय जानो अरु हृदय विचारो हम अतिही दुख पैहैं ॥ पूँछो जाइ कवनको ठोटा तब कहा उत्तर दे ॥ खायो खेले संग हमारे याको कहां वतैहैं ॥ गोकुल अरु मथुराके वासी कहां लौं झूठे केहैं । अब हम लिखि पठयो चाहत हैं उहां पत्त नहि पै हैं।इन गायन चरवो छाँडो है जो नाह लाल रै हैं।इतने पर नहिं मिलत सूरप्रभु फिरि पाछे पछितैहैं ॥३२॥सारंगा तवते छीन शरीर सुभाहु।आधो भोजन सुवल करतहै ग्वालनके उर दाहु ॥ नंद गोप पिछवारे डोलत नैनन नीर प्रवाह । आनंद मिट्यो मिटी सव लीला काहु न मन उत्साहु॥ एक वेर बहुरो ब्रज आवहु दूध पतूखी खाह।सूर सुपथ गोकुल जो वैठहु उलटि मधुपुरी जाहु॥३३ नयाकहियो यशुमतिकी आशीशाजहाँ रहो तहां नंदलाडिलो जीवो कोटि वरीसामुरली दई दोह नी घृत भरि ऊधो धरि लई शीश । इह घृत तौ उनहीं सुरभिनको जो प्यारी जगदीश ॥ उधो चलत सखा मिलि आए ग्वाल बाल दश वीश । अबके इहां ब्रज फेरि वसावो सूरदासके ईश॥३४॥ अय सखा वचन ॥ बिलावल॥ ऊधो देखतहो जैसे ब्रजवासी। लेत उसास नैन जल पूरित सुमिरि सुमिरि अविनासी ॥ भूलि न उठत यशोदा जननी मनोभुअंगम डासी। छूटत नहीं प्राण क्यों अटके कठिन प्रेम की फासी ॥ आवत नहीं नंद मंदिरमें वह्यो फिरत पनियासी प्रेमनमिले धेनु दुर्वल भई श्याम विरहकी त्रासी ॥ गोपी ग्वाल सखा बालक सब कहूं न सुनि यत हासी । काहे दियो सूर सुख में दुख कपटी कान्ह लवासी॥३६॥उद्धववचन ॥ सारंगाधन्य नंद धन यशुमति रानी । धन्य कान्ह प्रकटे सुखदानी ॥ धन्य ग्वाल धन्य धन्य जेहि गोद खेलाए । धन्य ब्रज भूमि धन्य वृंदावन जहां अविनाशी आए ॥ धन्य धन्य सूर आज हमहूं जो तुम सब देखें आए॥३६॥ अथ दूसरी लीला॥भवँर गीत ।। गोपी वचन आसावरी ॥ छंद त्रिभंगी ॥ हरि रथ रतन जरयो अनूप दिशाते आवै । जेहि मग कृष्ण गयो तेहि मगते दर्शावै ॥ वै मगते आवै संखन बोलावै देखो नैन विचारी। मुकुट कुंडल तनु पीत वसन कोउ गोविंदकी अनुहारी ॥ वैतो भूपण परखन लागी तब लागि निअरे आए। उघो जिय जानी मन कुँभिलानी कृष्ण संदेश पठाए॥३॥चली % 3D