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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६५४

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दशमस्कन्ध-१०


जल-थल घट घट रह्यो समाई ॥ इहि प्रकार भव दुख सरितरहू । योगपंथ क्रम क्रम अनुसरहूँ ॥ ॥९॥ उत्तर गोपिका ॥ हम ब्रजवाल गोपाल उपासी । ब्रह्मज्ञान मुनि आवै हासी ॥ ब्रजमे योगकथा ते ल्यायो । मनो कुविजा कूवर माँह दुरायो ॥ श्याम सोंगाहक पाइ देखायो । सो माधो तुम हाथ पठायो । हम अवलाठगी अल्प अहीरी । वहां भलो ठग्यो कसकी चेरी । राम जन्म सीता जो दुराई । भली भई कुविजा वधूपाई ॥ तव सीता वियोग दुखपायो । अब कुविना पाइ हियो सिरायो।इह नीरस ज्ञान कहा लै कीजै। योगमोट दासी शिर दीजै ॥१०॥ उद्धववचन ॥ वै परब्रह्म अच्युत अविनाशी । त्रिगुणरहित प्रभु धरै नदासी ॥ नहिं दासी ठकुराइनकोई। जहां ॥ देखो तहां ब्रह्म है सोई ॥ अपने और ब्रह्महि जानो । ब्रह्म विना दूजो नहिं मानो ॥११॥ गोपिकावचन ॥ खरे करव अलियोग सँवारो । भक्त विरोधी ज्ञान तुम्हारो ॥ कहा होत उपदेशे तेरे । नैन सुवस नाहीं अलि मेरे ॥ हरिपथ जोरै छिन छिन रोवै । कृष्णवियोगी निमिप नसोवै ॥ नंदनंदनको देखेनीवै । योग पंथ याते नहिं पीवै ॥ जब हरि आचैं तब सचपावै । मोहन मूरति कंठ लगावै ॥ दुःसह वचन हमैं नहिंभावै । इह योग कथा वौदै कि बिछावै ॥१२॥ उद्धववचन ॥ उधो कहि कहि धनि व्रजवाला । जिनके सर्वस मदनगोपाला ॥ मैं जो कही सो आवन नपाई । तुमरे दरशभक्ति निजमाई ॥ तुम मम गुरु मैं दास तिहारो । भक्ति सुनाइ जगत निस्तारो भवर गीत जो सुनै सुनावै । प्रेम भक्ति गोपिनकी पावै । सूरदास गोपी बडभागी। हरि दरशनकी हवरी लागी ॥१३॥३८॥ अथ दूसरी लीला भँवरगीत ॥ गोपीवचन नैतश्री ॥ ऊधोको उपदेश सुनो किन कानदै । निर्गुणसँदेशो श्यामः पठायो आनदै ॥ कोउ आवत वोहि वोर जहां नंदसुवन पधारे । सरस वेणुध्वनि होहि मनो आए ब्रजप्यारे ॥ धाये सब गलगाजिकै उधो देखे जाइ । लै आए ब्रज राज गृह आनंद उर न समाइ ॥ अर्घ्य आरती तिलक दूब दधि माथेमें दीनी। कंचन कलस भराइ और परि कर्मा कीनी ॥ गोपभीर आंगन भई जरि बैठे इकजाति । जलझारी आगे धरे पूँछत हरि कुशलाति ॥ कुशल क्षेम वसुदेव कुशल देव कुविजाऊ । कुशल क्षेम अक्रूर कुशल नीके बलदाऊ । छि कुशल गोपालकी रहे सकल गहि पाँइ । प्रेम मगन ऊधो भए पेखत ब्रजके भाइ ॥ मनमे उधो कहैं ऐसी बूझिए न गोपालहि। ब्रजके हेतु विसारि योग सिखवें व्रजबालहि ॥ इनकी प्रीति पतंगलौं जारतहै सब देह । वै हरि दीपक ज्योति ज्यों नैक नउनके नेह ॥ तव ऊधो करलै लिखी हरिजूकी पाती । पढ़ी परत नहिं नैक रहे गंभीर करि छाती ॥ पाती वांचि नआवई रहे नयन जल पूरि । देखि प्रेम गोपीनके ऊधो ज्ञान गर्व गयो दूरि ॥ फिरि इत उत बहराइ,नीर नैननके शोधे । ठानी कथा प्रवोधि तबहिं फिरि गोप समोधे । जो व्रत, सुनि वर ध्यानहीं पावहिं नर अवतार । ते व्रज सिखें गोपिका देहि विपय विसार । सुनि ऊधोके वचन रही नीचे के तारे । मानो मांगति सुधा आनि व्यालनि विषजारे ॥ हम अवला कहा जानई योग युक्तिकी रीति । नँदनंदन व्रत छांडिकै को लिखि पूजै भीति ॥ अगमते अगह अपार आदि अविगत है सोऊ । आदि निरंजन,नाम ताहिरंजे सब कोऊ ॥ नयन नासिका अग्रहै तहां ब्रह्मको वास । अविनाशी विनशैनहीं सहज ज्योति परगासाऊयो जो पग पानि नहीं ऊखल क्यों बांधे। नयन नाशिका मुख नचोरि दधि कौने खाधे। तव जो खिलायो गोदमें बोलि तोतरे वैन । ऊधो ताको वतावही जाहि न सूझे नैन ॥ माया अनित्य अधारीता लोचन दुइनापे । ज्ञान नयन अनंत ताहि सूझै परगा ।