पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६५६

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दशमस्कन्ध-१० (५६३) जहां लगि कथा रावरी ॥ कबहुँ कहत हरि माखन खायो कौन वसैया कठिन गाँवरी । कबहुँ कहत हरि उखल वांधे घर घर ते ले चलो दाँवरी ॥ कबहुँ कहत व्रजनाथ वनगए जोवत मगभई दृष्टि झाँवरी। कबहुँ कहत वा मुरली महियाँ लै लै वोलत हमारो नाउरी।कबहुँ कहतं व्रजनाथ साथ ते चंद्र उग्यो है एहि ठाँवरी।सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशविनु अब वह मूरति भई सांवरी॥४४॥विहागरो। हरि आए सो भली कीन्ही । मोहिं देखत कहि उठी राधिका अंक तिमिरको दीन्दी ॥ तनु अति कॅपति विरह अति व्याकुल उरधुकधुकी खेद कीन्ही । चलत चरणगहि रही गई गिरि खेद सलिल भयभीनी छूटी तेहि भुज फूटी पलिया नलटूटी लरफटी कंचुकी झीनी । मानो प्रेमके परन परेवा याहीते पढि लीन्हीं ॥ अवलोकति इहिभांति रमापति मानो छूटी अहिमणि छीनी । सुरदास प्रभु कहौं कहां लगि है अयान मतिहीनी॥४५||मलार॥सुनोश्याम यहबात और कोउ क्यों समुझाय कहै। दुहुँदिशिकोरति विरह विरहिनी कैसेकै जो सहै । जब राधे तवहीं मुख माधो माधो रटतरहै । जब माधो होइजात सकल तनु राधा विरह दहै । उभयअग्र दौंदारु कीट ज्यों शीतलताहि चहै । सुर दास अति विकल विरहिनी कैसेह सुख नलहै।।४६॥केदारोगाचितदै सुनो श्याम प्रवीनाहार तुम्हारे विरह राधा मैं जु देखीछीन । तज्यो तेल तमोल भूपण अंग वसन मलीन । कंकना करवाम राख्यो गढी भुजगहिलीनाजिव सँदेशा कहन सुंदरि गवन मोतन कीनाखसि मुद्रावलि चरन अरुझी गिरी धरनि वलहीना। कंठवचन नवोल आवै हृदय परिहसभीन । नैन जल भीर रोइ दीनोग्रसित आपद दीन ॥ उठी बहीर सँभारि भट ज्यों परप साहस कीन । सूर प्रभु कल्याण ऐसे जीवहि आशालीन ॥४७॥ भरि भरि लेत ऊरध श्वास । साँवरे व्रजनाथ तुमविनु दुखितपंचशरत्रास ॥ मित पीर अधीर डोलत समर मीन विलास । तेई सुख दुख भए दारुण मिलि गए रस रास ॥ निगम गुरुजन लोगन डरत जगकरत उपहास । सूरश्याम विनु विकल विरहिनी मरत दरश विन प्यास ॥१८॥पनाश्री।। उमॅगि चले दोउ नैन विशाल । सुनि सुनि यह संदेश श्यामधन सुमिरि तुम्हारे गुण गोपाल । आनन अपु उरजीनके अंतर जलधारा वाढी तेहिकाल । मनुयुगजलन सुमेर शृंगते जाइ मिले सम शशिहिसनाल ॥ भीजे विय अंचर उर रानित तिनपर वर मुकुत नकी माल । मानौ इंदु आये नलिनी दल लंकृत अमी ओस कन जाल ॥ कहा वह प्रीति रीति राधासों कहां यह करनी उलटी चालासूरदासप्रभु कठिन कथनते क्यों जीव विरहिनि बेहाल||४९ मारू ||तुम्हरे विरह व्रजनाथ राधिका नैनन नदी वढीलीने जाति निमेप कूल दोउ एते यान चढी॥ गोलकनाउ निमेप न लागत सो पलकनि वर बोरति । ऊरघ श्याम समीर तरंग गिनि तेज तिलक तरु तोरति।।कजल कीच कुचील किए तट अंचर अधर कपोलाथकि रहे पथिक सुयश हित हाँके हस्त चरण मुख बोल|नाहिंन और उपाय रमापति विन दरशन जो कीजै । अंशु सलिल चूड़त सब गोकुल सूर सुकर गहि लीज।॥५०॥मलारनिन घट घटतःन एक घरी।कबहुँ न मिटत सदा पावस ब्रज लागी रहत झरी ॥ विरह इंद्र वरपत निशि वासर इहि अति अधिक करी । उरघ उसास समीर तेज जल उर भुवि उमॅगि भरी ॥ वूडति भुजारोमद्रुम अंवर अरु कुच उच्च थरी । चलि न सकत पथिक रहे थकि चंद्रकी चखरी ॥ सव ऋतु मिटी एक भई ब्रज महि यहि विधि उलटि धरी। सूरदास प्रभु तुम्हरे विछुरे मेटि मर्याद टरी५१॥केदारोगादेखी मैं लोचन चुवत अचेत। मनहुँ कमल शशि त्रास ईशको मुक्ता गनि गनि देत ॥ द्वार खडी इकटक मग जोवत ऊरघ श्वास न लेत। मानहुँ मदन मिले चाहति है सुंचत मरुत समेत ॥ श्रवणन सुनत चित्रः पुतरी लौं समुझावंत