पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६५८

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दशमस्कन्ध-१० नपाऊं ॥ कौन कौन को उत्तर दीजै ताते भग्यो अगाऊं । वे मारे शिर पटिया पारे कथा काहि उढाऊं ॥ एक अँधेरो हियेकी फूटी दौरत पहिर खराऊं। सूर सकल पट दरशन हैं वारहखरी पढाऊं ॥ ६२ ॥ सुनि लीन्हों उनहींको कह्यो । अपनी चाल समुझि मनहीं मन गुनि अरगाइ रह्यो । अवलनि सों कही परि जापै बात तोरि कनि कानि । अनबोले पूरो दै निवह्यो बहुत दिन नको जानिाजानि वृझि केहो कत पठयो शठ वावरोअयानो । तुमहूं बूझि बहुत वातनको वहां जाहु तौ जानौ|मैंतो भूलि ज्ञानको आयो गयउ तुम्हारे ठोले।सूर पठावनहीकी वोरी रह्यो जु गजसों लीले ६३ ॥मलार ॥ हो हरि बहुत दाँउदै हारयो।आज्ञा भंग होइ क्यों मोपै वचन तुम्हारोप्यारयो।हारि मानि उठि चल्यो दीनद्वै जानि आपुन पै कैदु । जानिलेहु हरि इतनेही में कहा करैनी मनको वैदु उत्तर को उत्तर नहिं आवत तव उनहीं मिलि जातु। मेरी किती बात ब्रह्माको अर्ध वचन में मातु। अपनो चाल समुझि मनहीं मन घल्यो वसीठी तोरि । सूर एकहू अंग नकाची मैं देखी टकटोरि।। ॥६॥ कहिवे में न कछू सकराखी । बुधि विवेक उनमान आपने मुख आई सो भापी॥ हौं मरि एक कहौं पहरकमें वै छिनमांझ अनेक । हारि गानि उठि चल्यो दीनकै छाँडे आपनी टेक ॥ हौं पठयो कत कौन काजै शठ मूरख जो अयानो। तुमहिं बुझावहु ते वातनकी वहां जाहु तो जानो ॥ श्रीमुखकी सिखई ग्रंथो कत ते सव भई कहानी । एकहोइ तो उत्तर दीजै सूर सुमठी उभानी ।। ६५ ।। सोरठ। माघोजी में योगको वोझाभरयो । श्याम उन मुख विधु वचन सुधारस सुनि मुनि कछु न कहो।। तौलो भार तरंग मो उदाधि सखी लोचन उमझो। तुम जो कह्यो ज्ञानको मारग सो वार्ते जो वह्यो। मोहिं आश्चर्य एक जो लागत तो कैसे जात सह्यो । सुर दास प्रभु सखा सयानो लै भुज बीच गह्यो ।। ६६ ॥ नट ॥ कोऊ सुनत न वात हमारी। कहा माने योग युक्ति यादवपति प्रगट प्रेम वजनारी ॥ कोऊ कहति इंद्र जब वरपो टेकि गोवर्धन लेत । कोर कहति हरि गए कुंजवन शीश धाम वे देत।। कोऊ कहत नागकारे सुनि गए हरि यमु नातीर । कोउ कहै गए अघासुर मारन संगलिए बलवीर ॥ कोउ कहै ग्वाल वाल सँग खेलत वनमें जाइ लुकाने । सूर सुमिरि गुणमाथे तुम्हारे कोउ करो नामानै ॥३७॥ सारंग ॥ हरि तुम्हें वारंवार सँभारै । कहहु तो सब युवतिनके नाम कहो जे हितसों उरधारे। कबहुँक आँखि नूदिक चाहति सब सुख अधिक तिहारे । तव प्रसिद्ध लीला सँग विहरत अवचित डोर विहारे ॥ जाको कोऊ जेहि विधि सुमिरे सोउ तेही हित माने । उलटीरीति सबै तुम्हरेहै हमती प्रगट कहिजाने । जो पतिआहो तुम पठवत लिखि बीच समुझि सव पीउ । सूरश्याम हैं पलक धाममें लखि चित कत विललाउ ॥ ६८॥ माधोजू कहा कहीं उनकी गति । देखत वन कहत नहिं आवै परम प्रतीति तुमते रति ॥ यद्यपि हो पडमास रह्यो ढिग लही नहीं उनकी मति। कासों कहौं सबै एकै बुधि परवोधी माने नाही अति ॥ तुम कृपालु करुणामय कहियत ताते मिलत कहा क्षति । सूरझ्याम सोईपै कीजै जाते तुम पावह पति ॥ ६९ ॥ तुम्हारोइ चित्र वनाउ कियो । तव को इंदु सम्हारि तुरतही मनसिज साजि लियो ॥वति गहि युग अंगुली के बीच उन भरि पानि पियो । पुरप्रति करति लेखको प्रारंभ तबहिं प्रहार कियो॥ वै पथ विकल चकित अति आतुर भर्मतहेतुदियो । भृति विलंवि पृष्टिदै श्यामा श्यामै श्याम वियो ॥ या गति पाइ रही राधा अब चाहति अमृत पियो।सूरदास प्रभु प्रति उलटि परी है कैसे जात जियो७०॥केदारो।अब जिनि वाँधि वेहि उराहु । दूध दधि माखन मनोहर डारि देहु अरु खाहु ॥ सदा बैठे घोप रहियो वन न दैहै जा।