पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६२

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ALCD- - - - - __श्रीः। अथ सूरसागर। दशमस्कन्धोत्तरार्धः। जरासंध आगमन द्वारकाहेतु ॥ ॥राग मारू॥ श्याम बलराम जव कंस मारयो।सुनि जरासंध वृत्तान्त अस सुतासे युद्ध हित कटक अपनो हँकारयो।जोरिदल प्रवल सो चल्यो मथुरापुरी सुन्यो भगवान जवनिकट आयो । तब दुई वीर दल साजिकै आपनो नगरते निकसि रणभूमि छायो।दुहुँदिश सुभट बांके विकट अति जुरे मनो दोउ दिश घटाउमडि आई।सूरप्रभु सिंहध्वनि करत जोधासकल जहां तहां करन लागे लराई॥१॥ ॥रागमलार। मानहु मेघवटा अति गाढ़ी । बरपत वाण बूंद सेनापति महानदी रण बाढ़ी।जहां वरन वरन बादर बानत अरु दामिनि कार करिवाराउडत धूरि धुरवा धुर दीसत शूल सकल जलधार॥ गर्जनि पणव निसान शंखरव हय गज हीस चिकार प्रगटत दुरत देखियत रविसम द्वै वसुदेवकुमार कुंजर कूल रमित अतिराजत तहँ शोणित सलिल गंभीर । धनुप तरंग भंवर स्यंदन पग जलचर सुभट शरीर ॥ उड़त ध्वजा पताक छत्र रथ तरुवर टूटत तीर। परमनिसंक समर सरिता तट क्रीडत यादव वीर ॥ सूने किये भुवन भूपतिके सुवस किए सुरलोक । छिनक मध्य हरि हरयो कृपाकरि उन सबहिनके सोक ॥ आनंदे मधुवनके वासी गई नगर की रोक । जरासंधको जीति सूर प्रभु आये अपने वोक ॥२॥ अध्याय ॥ ५१ ॥ कालयवनदहन।मुचुकुंद उद्धार॥राग सारंग ॥ वार सत्रह जरासंध मथुरा चढ़िआयो । गयो सो सवदिन हार जात घर बहुत लजायो । तव खिसिआइकै कालयमन अपने सँग ल्यायो । हरिजी कियो विचार सिंधुतट नगर बसायो । उग्रसेन सब कुटुमलै ता और सिधायो। अमरपुरीते अधिक सुख तहँ लोगन पायो।कालयमन मुचुकुंद सो हरि भस्म करायो । बहुरि आइ भरमाइ अचल सब ताहि जरायो । जरासंध वहँते वहरि निज देश सिधायो । श्याम राम गये द्वारका सूरज यशगायो॥३॥ अथ द्वारका प्रवेश।।कल्याणं ॥ देखरी आज नैन भरि हरिजूके रथकी शोभा । योग यज्ञ जप तप तीरथ व्रत कीजतहै जहि लोभा ॥ चारु चक्र मणि खचित मनोहर चंचल. चमर पताका । श्वेतछत्र मनो शशि प्राची दिशि उदै कियो निशिराका ॥ धन तन श्याम सुदेश पीतपट शीशमुकुट उरमाला । जनु दामिनि धन रवि तारागण प्रगट एकही काला ॥ उपजत छविकर अधर शंखमिलि सुनियत शब्द प्रशंसा । मानहुआसन कमल मडलमें कूजतहै कलहंसा ॥ मदन गोपाल न