पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६४

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दशमस्कन्ध-१० (६७१) यज्ञफल होइ पिता वहि दरशनपाए। रोइ रुक्मिणी यों कह्यो धरो पाणिमें माथ । यह पाती लै पिता दीजियो प्राणनाथके हाथ॥विप्रभवन रथ चन्यो चलत तब बारन लाई। छपनकोटिके मध्य राजतहैं यादवराई ॥ छाँडि सकुच पातीदई तब पूंछी कुशलात । जानि चीन्ह पहिचानि कुँअरमन फूले अंग नमात॥ आपुन झारी मांगि विपके चरण पखारे । इती दूरि श्रम कियो राज द्विज भए दुखारेपाती वांचन आवई मांग्यो तुरत विमानालोचन भरि भरि आवही मानहुँ कर जल पान॥ लीन्हों विप्रचढाइ बोलिवलसों कहि साराासकल सभा जियजानिकसे साजे हथिआराकहहु नाथ कहां आवहीं कियो कौन पर छोहाभीपमकै रुक्मिणिहरण सावधान सव होहु।।आवत देख्यो विन जोरिकर रुक्मिणिधाईकहा कहेगो आनि हिए धकधकी लगाई।विप्रआनि मालादए कहे कुशलके बैनाकुँवार पतियारो तवकियो जब रथ देख्यो नन|गए कंचुकि बंद दूटि लुटि हृदयसोपाइकरति मनहिंमन सेव निकट रथ दयो देखाइ तिहूलोकके कंतही हों दासी प्रभु जानि । रुक्मिणिविनती करतिहै लाजहि आपुहि मानि ॥ वैठि असुर सब सभा रुक्मसों मतौविचारयो । आयो सुन्यो अहीर मनों यहिकाल हँकारयो । गाइ चरावन ग्वालहै आयो मुजरा देन । देखहुढीठो दूरिते आयो भातहि लेन ॥ सव दल होहु हुसियार चलहु मठ घेरहिं जाई । परपंचीहै कान्ह कछू मति करै ढिठाई ॥ कुँअरि गौरि पाँयनपरी मन वांछित फल जानि । हौं यदुपति वर पाइहौं वदन धरौं दोउ पानिागौर कहै सुन कुँअरि पाँय मेरे जिनि लागहि।कहा कुटुंबके वैन नैन श्रीमति वैरागहि । आधो श्रीवृपभानुको आधो दीन्हों तोहि॥राज सोहाग वढो सवै कहा निहोरो मोहि।अब गावहु करि सगुण वोलि मुख अमृत वानी । दूलह श्रीनंदलाल दुलहिनी रुक्मिणि रानी।ायाको जननी दीजियो करत सखिन सों नेह । हौं यदुपति घर जाति हौं जाको है यह देह।अंबर वाणी भई सनल-वादर दल छाए । देव तेतीसौ कोटि जो यज्ञ तमासे आए ॥ हरन रुक्मिणी होत है दुहू ओर भई भीर। अति अघात कछु नाहिंन सूझत वत्र चलिहि ज्यों नीर ॥ लागे रुक्म गोहारि संग शिशुपाल न छोड़े छांडहि वान विशाल युद्ध ऐसोको वोडै । चक्र धरे हरि आवहीं सुनि असुरन जिय गाज। टेरि कयो शिशुपालसों कीजो कंकन लाज ॥ सकल सैन संहार रुक्म हलधर गहि लीन्हो । आगे इहि सों काम रुक्मिणी सो प्रण कीन्हो । सात शिखा शिर राखिकै तव बूझी कुशलात । कंचनरानको काज सँवारयो भूपनड को यह काज ॥ नगर बधाई वाजि नाथ बहुतै सुखमान्यो। पूरण कीन्हों नेह रुक्मते सत्यहि जान्यो ॥ कंकन छोरयो द्वारका वाज्यो अनंद निसान । भुक्ति मुक्ति न्यवछावरी पाई सूर सुजान ॥ ८॥ कान्हरो ।। पतियां दीजे श्याम सुजानादि । मुख संदेश बनाइ विप्रज्यों प्रभुन ढीठ कार मानहि ॥ श्रीहरि योग्य रुक्मिणी लिखितं विनती सुनहि प्रभु धरि कानाहि । वांचत वेगि आइवो माधव जात धरे मेरे प्रानहि समुझत नहीं दीन दुख-कोऊ सिंह भखहि शृगालके पानहि । मणि मर्कट कर देत मूढमति मृगमद रजमें सानहि ॥ कवलगि सहौं दुःख दरश दीन भई मीन विना जलपानहिं । सूरदास प्रभु अधर सुधाधन वरपिदेड जियदा नहिं ॥ ९॥ सारंग ॥ द्विज कहिवी हरिसों समुझाइ । सकत शृगाल सिंहको भोजन दुर्बल देखिकै छीने खाइ ॥ परमित गए लाज तुमहीको हसिनि व्याहि काग लैजाइ । काहेको नेम धर्म व्रत कीन्हो माघमास जलशीत अन्हाइ ॥ श्वान संग सिहिनि रति अजगुत वेद विरुद्ध असर करे आइ। सूरदास प्रभु वेगि म आवहु प्राणगए कहा लेहो आइ ॥ १०॥ द्विज कहियो यदुपति सन बात । वेदविरुद्ध होत कुंदनपुर हंसको अंश कागले परात॥ जिनि हमरो अपराध विचारो कन्या