पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६६

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दशमस्कन्ध-१० (६७३) दीन्हे रुक्म पठाई । ते सव सावधान भए चहुँ दिश पंछी इहाँ न जाई ॥ कुँवार पूजि गौरी विनती करि वरदेहु यादवराई । मैं पूजा कीन्ही या कारण गौरी सुनि मुसुकाई ॥ पाइ प्रसाद अंबिका मंदिर रुक्मिणि वाहेर आई । सुभट देख सुंदरता मोहे धरणि गिरे मुरझाई ॥ यहिअंतर यादवपति आए रुक्मिणि रथ बैठाई । सुरप्रभू पहुँचे अपने घर तब सबहिन सुधिपाई॥१९॥ आसावरी। याहीते शूल रही शिशुपालहि । सुमिरि सुमिरि पछताति सदा वह मान भंगके कालहि।।दुलहिनि कहति दौरि दीजहु द्विज पाती नंदकेलालहिावर सुवरात बुलाइ बडे हित मनसि मनोहर वालहि ॥ आये हरपि हरन रुक्मिणि रिस लगी दनुज उर शालहि । सूरज दास सिंह वलि अपुनोलीनी दलकि शृगालहि॥२०॥ अध्याय ॥ ५४ ॥ श्रीकृष्ण रुक्मिणीविवाहासोरठ ॥ श्याम जब रुक्मिणि हरि लै सिधाये । सुनि जरासंध शिशुपाल धाए ॥ शालवदंतवक बना रसीको नृपति चढे दलसाजि मानो रविहि छाए। सांगकि झलक चहुँदिशा चपला चमकि गजगर्ज सुनत दिग्गज डेराए । श्याम वलराम सुधिपाइ सन्मुख भये वाणवी करन लगे सारे । रुक्मिणी मैं कियो श्याम धीरज दियो बानसों वान तिनके निवारे ॥ राम हल मूशल संभारि धायो बहुरि विपुलरथ औ सुभट सब संहारे।रुंड पर रुंड धुकि परे धरि धरणिपर गिरतज्यों संग कर वज्रमारे ॥ जरासंध जीवते भजो रणखेतते शाल दंतवक या विधि पराई । प्रातके समै ज्यों भानुके उदयते भले होइ जात उडगन नशाईगयो भगवान शिशुपालको जीवते ताहि सों वचन याविधि उचारे । रुक्मिणी लिये मैं जात तुम देखतहि पै नहीं हरप कछु मन हमारे ॥ पुरुषको भाजिवते मरनहै भलो जाइ सुरलोक द्वारे उघारे । पुरुपको हार अरु जीत दोउ होतहै हर्प अरु सोच नहिं चित्तधारे । वीजबोइये जोइ अंतलोनिये सोइ समुझि यहवात नहिं चित्त धरई । करन कारण महाराज हैं आपही तिनहिं चित राखि नित धर्म करई ॥ बहार भगवान शिशुपालको छाँडिदियो गयो निज देशको सो खिसाई । शस्त्र धनु छाँडिक भाजि नरपतिगये यादवनहेत हरिदै लुटाई।रुक्म यह सुनि चल्यो सौंह कार नृपनपैश्याम वलरामको बांधि ल्याऊं। आइ इहां कह्यो शिशुपाल सो मैं नहीं आपनो वल तुम्हें अब दिखाऊं ॥वाण वर्पा लग्यो करन याभांति कहि कृष्णज्यो तिनहिं मगमें निवारयो। आपने बाणको काटि ध्वज रुक्मके असुर औ सारथी तुरत मारयो । रुक्मभूपरयो उठि युद्धहरिसों करचो हरिसकल शस्त्र ताके निवारे। वहुरि खिसिआइ भगवानके ढिगचल्यो ज्यों चलत पतंग दीपक निहारे ॥ खड्गलै ताहि भगवान मारनचले रुक्मिणी जोरिकर विनयकीयो । दोप इन कियो मोहि क्षमा प्रभु कीजिए भद्रकार शीश जिवदान दीयो॥ राम अरु यादवन सुभट ताके हते रुधिरके नहर सरिता वहाई । सुभट मनो मकर अरु केश सेवार ज्यों धनुप त्वच चर्म कूरम बनाई ॥ बहुरि भगवानके निकट आये सकल देखिकै रुक्मको हँससारे । कह्यो भगवानसों कहा यह कियो तुम छाँडियो हुतो या भलो मारे। मरते अप्सरा आइ ताको वरति भाजिहैं देखि अव गेह नारी । रुक्मिणी सो कह्यो सोच नहि कीजिए होतहै सोइ जो होनिहारी ॥ रुक्म शिरनाइ या भांति विनती करी बुद्धि मर्म तुम्हरो नहीं जान्यो । ब्रह्म तुम अनंत तुम तुमहिं कारण करण मैं कौन भांति तुम्हको पहिचान्यो । दीन | बंधु कृपासिंधु करुणाकर मुनि विनय दयाकार ताहिको छाँडि दीन्हा । बहुरि निज नगरपैत्यो न सो लाज करि वनहि तिन आपनो वास कीन्हो । आइ भीपम दियो दाइज ता और बहु श्याम | आनंद सहित पुर सिधाये। सुनत द्वरायती मारु. उतसों भयो सूरजन मंगलाचार गाये ॥२१॥