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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६६

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दशमस्कन्ध-१०


दीन्हे रुक्म पठाई । ते सव सावधान भए चहुँ दिश पंछी इहाँ न जाई ॥ कुँवार पूजि गौरी विनती करि वरदेहु यादवराई । मैं पूजा कीन्ही या कारण गौरी सुनि मुसुकाई ॥ पाइ प्रसाद अंबिका मंदिर रुक्मिणि वाहेर आई । सुभट देख सुंदरता मोहे धरणि गिरे मुरझाई ॥ यहिअंतर यादवपति आए रुक्मिणि रथ बैठाई । सुरप्रभू पहुँचे अपने घर तब सबहिन सुधिपाई ॥१९॥ आसावरी ॥ याहीते शूल रही शिशुपालहि । सुमिरि सुमिरि पछताति सदा वह मान भंगके कालहि ॥ दुलहिनि कहति दौरि दीजहु द्विज पाती नंदकेलालहिावर सुवरात बुलाइ बडे हित मनसि मनोहर वालहि ॥ आये हरपि हरन रुक्मिणि रिस लगी दनुज उर शालहि । सूरज दास सिंह वलि अपुनोलीनी दलकि शृगालहि ॥२०॥ अध्याय ॥ ५४ ॥ श्रीकृष्ण रुक्मिणीविवाहासोरठ ॥ श्याम जब रुक्मिणि हरि लै सिधाये । सुनि जरासंध शिशुपाल धाए ॥ शालवदंतवक बना रसीको नृपति चढे दलसाजि मानो रविहि छाए। सांगकि झलक चहुँदिशा चपला चमकि गजगर्ज सुनत दिग्गज डेराए । श्याम वलराम सुधिपाइ सन्मुख भये वाणवी करन लगे सारे । रुक्मिणी मैं कियो श्याम धीरज दियो बानसों वान तिनके निवारे ॥ राम हल मूशल संभारि धायो बहुरि विपुलरथ औ सुभट सब संहारे।रुंड पर रुंड धुकि परे धरि धरणिपर गिरतज्यों संग कर वज्रमारे ॥ जरासंध जीवते भजो रणखेतते शाल दंतवक या विधि पराई । प्रातके समै ज्यों भानुके उदयते भले होइ जात उडगन नशाईगयो भगवान शिशुपालको जीवते ताहि सों वचन याविधि उचारे । रुक्मिणी लिये मैं जात तुम देखतहि पै नहीं हरप कछु मन हमारे ॥ पुरुषको भाजिवते मरनहै भलो जाइ सुरलोक द्वारे उघारे । पुरुपको हार अरु जीत दोउ होतहै हर्प अरु सोच नहिं चित्तधारे । वीजबोइये जोइ अंतलोनिये सोइ समुझि यहवात नहिं चित्त धरई । करन कारण महाराज हैं आपही तिनहिं चित राखि नित धर्म करई ॥ बहार भगवान शिशुपालको छाँडिदियो गयो निज देशको सो खिसाई । शस्त्र धनु छाँडिक भाजि नरपतिगये यादवनहेत हरिदै लुटाई।रुक्म यह सुनि चल्यो सौंह कार नृपनपैश्याम वलरामको बांधि ल्याऊं। आइ इहां कह्यो शिशुपाल सो मैं नहीं आपनो वल तुम्हें अब दिखाऊं ॥ वाण वर्पा लग्यो करन याभांति कहि कृष्णज्यो तिनहिं मगमें निवारयो । आपने बाणको काटि ध्वज रुक्मके असुर औ सारथी तुरत मारयो । रुक्मभूपरयो उठि युद्धहरिसों करचो हरिसकल शस्त्र ताके निवारे । वहुरि खिसिआइ भगवानके ढिगचल्यो ज्यों चलत पतंग दीपक निहारे ॥ खड्गलै ताहि भगवान मारनचले रुक्मिणी जोरिकर विनयकीयो । दोप इन कियो मोहि क्षमा प्रभु कीजिए भद्रकार शीश जिवदान दीयो ॥ राम अरु यादवन सुभट ताके हते रुधिरके नहर सरिता वहाई । सुभट मनो मकर अरु केश सेवार ज्यों धनुप त्वच चर्म कूरम बनाई ॥ बहुरि भगवानके निकट आये सकल देखिकै रुक्मको हँससारे । कह्यो भगवानसों कहा यह कियो तुम छाँडियो हुतो या भलो मारे । मरते अप्सरा आइ ताको वरति भाजिहैं देखि अव गेह नारी । रुक्मिणी सो कह्यो सोच नहि कीजिए होतहै सोइ जो होनिहारी ॥ रुक्म शिरनाइ या भांति विनती करी बुद्धि मर्म तुम्हरो नहीं जान्यो । ब्रह्म तुम अनंत तुम तुमहिं कारण करण मैं कौन भांति तुम्हको पहिचान्यो । दीन बंधु कृपासिंधु करुणाकर मुनि विनय दयाकार ताहिको छाँडि दीन्हा । बहुरि निज नगरपैत्यो न सो लाज करि वनहि तिन आपनो वास कीन्हो । आइ भीपम दियो दाइज ता और बहु श्याम आनंद सहित पुर सिधाये । सुनत द्वरायती मारु उतसों भयो सूरजन मंगलाचार गाये ॥२१॥