पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६७

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(६७४) सूरसागर। | | आसावरी ॥ देखहिं दौरि द्वारकावासी । सुनत सकल पुर जीत रुक्मिणी लै आए यदुपति अवि नासी ॥ लेति बलाइ करत नवछावरि बलि भुन दंड कनक अति त्रासी । नर नारीके नैन निरखि करि चातक तृपित चकोरी प्यासी ॥ कर आरती कलस लै धाई चीन्हि न परति कुलवधू दासी। देश देश भयो रहसि सूर प्रभु जरांसध शिशुपालकी हांसी२२॥धनाश्रीआवहुरी मिलि मंगल गावहु।। हरि रुक्मिणिहि लिये आवत हैं इह आनंद यदुकुलहि सुनावहु ।। बांधो वंदनवार मनोहर कनक कलस भरि नीर भरावहु । दधि अक्षत फल फूल परंमरुचि अंगन चंदन चौक पुरावहु ।। कदली यूथ अनूप कुशल दल सुरंग सुमन ले मंडल छावहु । हरद दूब केशर मग छिरको भेरी. मृदंग निसान वजाबहु ॥ जरासंध शिशुपाल नृपतिते जीतेहैं उठि अर्घ्य चढ़ावहु । बल समेत तनु कुशल सूर प्रभु हरिआये आरती सजावहु॥२३॥ विवाह वर्णन | बिलावल ॥ छंद त्रिभंगी ॥श्रीयादव पति व्याहन आयाधिन्य धन्य रुक्मिाणि हरि वर पाया।|छंदाहरि श्याम घन तन परमसुंदर तड़ित वसन विराजई। अंग अंग भूपण सुरस शशि पूरणकला मानो भ्राजई॥ कमल मुखकर कमल लोचन कमल मृदुपद सोहही। कमल नाभिः कमल सुंदर निराखि सुर मुनि मोहही ॥ १॥ सुधा सरोवर छिटकि अनूपम । ग्रीव कपोत मनो नाशा कीरसम।। छंद । कीर नासा इंद्र धनु भू भवर से अलकावली । अधर विद्रुम वज्रकन दाडिम किधौं दशदशनावली ॥ सौर केशरि अति विराजत तिलक मृदमदको दियो । कामरूप विलोकि मोझो वास पद अंबुज कियो ॥ २ ॥ वसुदेवनंदन त्रिभुवन मनहरन । मुकुट तरुन मनो मकर कुंडल श्रवन।। छद । मुकुटकुंडल जडित ! हीरा लाल सोभा अतिवनी । पन्ना पिरोजा लागे विच विच चहूंदिशिलटकत मनी ॥ सेहरोशिर पर मुकुट लटक्यो कंठमाला राजई । हाथ पहुँची वीर कानग जरित मुंदरी भ्राजई ॥३॥ उर वैजंतीमाल सोभा अतिवनी । चरणन नूपुर कटतट किंकिनी छंद।। किंकिनी कट चरन नूपुर शब्द सुंदर कुंजही । कोकिला कल हंस वाल रसालते नहिं पुजही ॥ तुरई वाजनि वीना ताजनि चपल चपला सेहरी । जौन जरित जराव वागहि.लगे सब मुकुतासरी॥४॥ चढ़ि यदु नंदन वनित वनाइकै । साजि वरात चले यादव- चाइकै ॥ छंद ॥ चले साजि वरात यादव कोटि छप्पन अतिवली । उग्रसेन वसुदेव हलधर करत मन मन आतितली ॥ शंख भरिः निशान वाजहिं नचहिं शुद्ध सोहावनी । भाट बोलें विरद नारी वचन कहैं मन भावनी ॥५॥ सुरपति आयो संगहै शची।शुद्धमुहूरत चौरी विधिरची ॥ छंद ॥ रची चौरी आपु ब्रह्माजरित खंभ लगाइक । इंद्र सुरदारनि सहित वैठे तहां सुखपाइकै ॥ चौक मुक्ताहल पुरायो आइ-हरि बैठे तहां । निखि सुर नर सकल मोहे रहिगए जहँके तहां ॥ ६॥ कुंअरि रुक्मिणी कमला अवतरी । शशि पोडस कला सोभा तनुधरी ॥छंदकुंआर शशि पोडसकलाश्रृंगार करि ल्याई अली। विविध विधि कियो व्याह विधि वसुदेव मन उपजी रली ।। सुर पुहुप वरसैं हरपिके गंधर्व किन्नर गावहीं । शारदा नारद आदिसुयश उच्चार जयति सुनावहीं ॥ ७॥ विप्रगणउ दिए बहु युगुति सुरति करि । किए.. अयाची याचक जन बहार।।दाबहुरि निज मंदिर सिधारे करी सुभद्रा आरती । देवकी पीवो वार । नीरददई अशीशा भारती ।। युवा युवती खेलाइ कुल व्यवहार सकल कराइवो । जनन मन भयो : सूर आनंद हरषि मंगल गाइबो ॥८॥सारंगा तोसों गारि कहा कहिदीनै हो यदुनंदन । जग वा नाउँ कौनको लीज हो यदुनंदन ॥छंद। वपु जगत काको नाउँ लीजै हो यदुज्ञाति गोत न जानिए। ! गणरूप कछु अनुहारि नाही का. वखान वसानिए। सब शोधि रह्यो नशोधपायो विन सुने का। मा