पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६८

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(६७५). दशमस्कन्ध-१० कीजिए । बलिजाउँ यादवपति तुम्हारी गारिका कहि दीजिए ॥ तेरी मैया सब जग खोयो । सोको जो बल न विगोयो ॥ छंद । सोको जो नबल कार वियोगो फिरत निशि वासर वनी। शिरश्वेत पट कटि नील लहँगा लाल चोली विनतनी ॥ कछु मंद मुख मुसुकाइ सुर नर नाग भुज भीतर लए । बलिजा. यादवपति तुम्हारी माया कुल विनु तुम किए । कछु कहि न जाइ गति ताकी । नित रहत मदनमद छाकी ॥ नित रहत मन्मथ मदहि छाकी निलज कुच झांपत नहीं । तब देखि देखि जु छयल मौहित विकल धावत तहीं॥ इक परत उठत अनेक अरुझत मोह अति मनसा मही । यहि भांति कथा अनेक ताकी कहत हू नपरै कही ॥ वहतौ नित नवतन रतिजोरै । चित चितवनिही मँहहैचोरै ॥ छंद ॥ अति चतुर चितवनि चित चुरावति चलत धर धीर न धरै। फिरि चमक चोप लगाइ. चंचल तनहिं तव अंतर करै। कछु भौंहकी छवि निराखि नैननि सुको जन व्रतते टरै । इहि भांति चतुर सुजान समधिनि सकति रति सवसों करे।।इनहीभूलिरहे सब भोगीविशकीन ब्राह्मणजे योगी।। छत्रपति केतेकहौं और अग जग जीव जल थल गनत सुनत न सुधि लहौं । ते परमआतुर काम कातुर निरखि नित कौतुक नए। यहि भांति समधिन संग निशिदिन फिरत भ्रम भ्रले भए । अब तुमही परम सयाने। तुम ठाकुर सब जगजाने ॥ छंद ॥ ठाकुर सवनके कृपानिधि हरि सुयश सब जग गाइए । या लोकके उपहास आपुन ताहि वरजि मिटाइए ॥ कहि एकही भलं पांच माधो और अनत न सूझिए । सुनि सूरश्याम सुजान इहिकुल अब न ऐसी कीजिए ॥२॥ अध्याय ॥ ५५ ॥ प्रद्युम्नजन्म ॥ विलावल ॥ प्रद्युम्न जन्म शुभपरी होऊ । काम अवतार लीन्हो विदित बात यह तासु सम तूल नहि रूप दोऊ ॥ पृथ्वीपर असुर शंवरभयो अति प्रबल तिन्ह उदधि मांह तेहि डारि दीन्हों । मक्षलियो भक्ष सो भक्ष गह्यो असुर तब कौनसों लेइकै भेट कीन्हो ॥ मक्षके उदरते वाल परकटभयो असुर मायावती हाथ दीन्हो । कह्यो तेहि काम पर माण नारद वचन सुमिरि अति हर्पसों ताहि लीन्हो ॥ भयो जव तरुण तव नारि तासों कहो रुक्मिणी मात हरि तात तेरो। नाम ममरति विदित वात जानत जगत कामतुअ नाम पुनि पुरुप मेरो ।। असुरको मार परिवारको देहि सुख देउँ विद्या तोको मैं बताई । विना विद्या असुर जीत सकही नहीं भेदकी वात सव कहि सुनाई । प्रद्युमन सकल विद्या समुझि नारिसों असुर सो युद्ध मांग्यो प्रचारी । काटि करवारि लियो मारि ताको तुरत सुरन आकास जयध्वनि उचारी ॥ बहुरि आकास मधि जाइ द्वारावती मात मनमोद अतिही बढायो । भयो यदुवंश अति रहसमानो जन्म भयो सूर जन मंगलाचार गायो॥२६॥अध्याय ॥ ५६ ॥ मणिहेतु सत्यभामा नाम्ववती विवाह ॥' सारंग ॥ हरिदर्शन सत्राजित आयो । लोगन जान्यो आवत आदित हरिसों जाइ सुनायो । हरि कह्यो रवि न होइ सत्राजित मणि है ताके पास । रवि प्रसन्न होइ दीन्ही ताको यह ताको परकाश ॥ आइ गयो सोऊ तेहि अवसर तेहि हरि कह्यो सुनाइ । यह मणि अति अनुपम है सो सुनि रहि न सक्यो ललचाइ ॥ येक दिन ताते अनुज सो मांगी ले गयो अखेट क काजा । ताको मारि-सिंह मणि लै गयो सिंह हत्यो रिछराजा ॥ ऋच्छराज वह मणि तासों लैजाम्बवतीको दीन्ही प्रसमन को विलंब भयो तब सत्राजित सुध लीन्हीजहां तहांकोलोग पठा यो काहू खोज न पायो। सूरदास सत्राजित भ्रमसों चोरी हरिहि लगायो॥२६॥अध्याय ॥ ५७ ॥ शत || धन्वा वध अफूर संवाद । सोरठ ॥ शुकदेव कहत सुनहु हो राजा.। ज्ञानी लोभ करत नहिं कबहुं लोभ ।