विगारत काजा ॥ कारकै लोभ अमृत जो पीवै विष समानं सो होई । विष अमृत होइ जाइ लोभ विन यह जानत जन कोई ॥ एकसमय यदुपति औ हलधर पंडव गृह पग धारी । शतधन्वा अरु सुफलकसुत मिलि कीन्हों मंत्र विचारी ॥ सत्राजितको हति मणि लीजै ज्यों जानै नहिं कोई । ऐसो समय बहुरि फिरि नाहीं पाछे होइ सो होई ॥ निाश आँधियारी जाइ शतधन्वा मारि ताहि मणि ल्यायो । फैलगई यह वात नगर सब तब मनमें पछितायो ॥ संतभामा करि सोक पिताको यदुपति पास सिधाई । शतधन्वा करत करी सो हरि कहि समुझाई ।। सुनि यदुपति हलधर उठि धाये वेग विलंब न लाई । लेहैं वैर पिता तेरेको जैहै कहां पराई ॥ तब मणि डारि अकूर पास वह मिथिलापुरको धायो। शत योजन मग एक दिवसमें तुरंग जाइ पहुँचायो । द्वारावति पैठत हरि सों सब लोगन खवार जनाई। मिथिलापुरी जाइ तिन मारयो पै मणि वहां नं पाईतव हरि को हत्यो विन दूषण हलधर भेद बतायो । वहां जाइ खोज तुम कीजो द्वारावति धरि आयो ॥ हलधर रहे गदायुध सीखन हरिद्वारावति आये। सतभामा मन हरण भयो जव समाचार सब पाये । सुफलकसुत मनहीं मन संकुच्यो करों कहा अवकाजा देत न वने वनै नहिं राखत उर डेरात उठि भाजासिब यादव मिलि हरिसी इह कह्यो सुफलकसुत जहां होइ । अनावृष्टि अतिवृष्टि होति नहि इह जानत सबकोइ ॥ कीजै दोष, क्षमा अव ताको हरि तर ताहि बुलायो । कहो कहा कहिए अब तुमसों तिन शिर नीचो नायो । पुनि कह्यो मणि सतभामाको दै याते भय भयो तोही । मणि वनदै बहुरोहि तेहीदेइ कह्यो लोभ नहिं मोही । लोभ भलो नाहीं दूनो पुर लोभ किये तप जाई । सूर लोभ कीनो सो विगोयौ शुक यह कहि समुझाई ॥२७॥ अध्याय ॥ ५८ ॥ पंचपटरानीका विवाह अकृिष्ण सों भया। राग-विलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरो सब कोई । हरि हरि सुमिरत सव सुख होई ॥ हरि हरि सुमिरयो है जिन जहां । हरि तेहि दरशन दीन्हों तहां ॥ हरि सुमिरन कालिन्दी कीन्हो । हरि वहां जाइ दरश तोह दीन्हों ॥ पाणिग्रहण पुनि ताको कीन्हो सवै भांति ताको सुख दीन्हो ॥ हरिहि मित्रविदा चित ध्यायो । हरि तहां जाइ विलंब नलायो ॥ करि विवाह ताही लै आयो । तासु मनोरथ सकल पुजायो । हरि चरणन सीता चित दीन्हों । ताको पिता परण यह कीन्हो ॥ सात बैल इह नाथै जोइ । सीता व्याह ताहि सँग होइ ॥ हरि तहां
जाइ तासु प्रण राख्यो। धन्य धन्य सव काहू भाष्यो । ताके पिता व्याह जव कियो । दाइज-बहु प्रकार पुनि दियो । बहुरो भद्रा सुमिरो हरी। गये पास तब विलम न करी ।। ऐसेही त्रिभुवनपति ॥ राई । ताके मनकी आश पुराई ॥ बहुरि लछमना सुमिरन कीन्हां । ताहि स्वयंवरमें हरि लीन्हों ।। पांचौ वारि व्याह घर आयोसूरदास यश मंगल गायो ॥२८॥ दारका मवेश शोभा वर्णन,॥ राग मलार ॥ देखो माई हरिजूके रथकी शोभा । योग यज्ञ तप कठिन कर्म सर्व कीज़त है जिंहि लोभा ।। चारु चक्र मणि पानि विराजत चंचल चमर पताका । श्वेत छत्र मनु शशि प्राचीदिशि प्रगव्यो रजनी राका ।। उपजत छवि कर अधर शंख निश सुनियत दुष्ट प्रशंसा । मानहु अरुन कमल मंडलमें कूजतहैं कलहंसा ॥ श्यामसुंदर सुदेश पीतपट शीश मुकुट उरमाला। जनु धन दामिनि रवि तारागण उदित एकही काला ॥ आनंदित सुत बंधु जननि पितु कृष्ण मिलन
पिय भावासूरदास प्रभु द्वारकावासिनि प्राणनाथ हियभावै ॥२९॥ अध्याय ॥ ५९ ॥ भौमासुर वध ॥ नृप । कन्या मोक्षासुरतरु आगमन ॥ षोडससहस्र रानी विवाह ॥राग गौरी ॥ सतभामासों इती वात जवते न कहीरी ।। कितिक कठिन सुरतरु सूप्रनकी या कारणतू रुठि रहीरी ॥ परमुख सुख जना उनदीने विन काजेदि
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सूरसागर।
