पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६९

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(५७६) . .. सूरसागर ।। ....... .. ..... । विगारत काजा ॥ कारकै लोभ अमृत जो पीवै विष समानं सो होई। विष अमृत होइ जाइ लोभ विन यह जानत जन कोई ॥ एकसमय यदुपति औ हलधर पंडव गृह. पग धारी । शतधन्वा अरु सुफलकसुत मिलि कीन्हों मंत्र विचारी ॥ सत्राजितको हति मणि लीजै ज्यों जानै नहिं कोई। ऐसो समय बहुरि फिरि नाहीं पाछे होइ सो होई ॥ निाश आँधियारी जाइ शतधन्वा मारि ताहि मणि ल्यायो। फैलगई यह वात नगर सब तब मनमें पछितायो. ॥ संतभामा करि सोक पिताको. यदुपति पास सिधाई । शतधन्वा करत करी सो हरि कहि समुझाई ।। सुनि यदुपति हलधर उठि धाये वेग विलंब न लाई। लेहैं वैर पिता तेरेको जैहै कहां पराई ॥ तब मणि डारि अकूर पास वह मिथिलापुरको धायो। शत योजन मग एक दिवसमें तुरंग जाइ पहुँचायो । द्वारावति पैठ त हरि सों सब लोगन खवार जनाई। मिथिलापुरी जाइ तिन मारयो पै मणि वहां नं पाईतव हरि को हत्यो विन दूषण हलधर भेद बतायो । वहां जाइ खोज तुम कीजो द्वारावति धरि आयो॥ हलधर रहे गदायुध सीखन हरिद्वारावति आये। सतभामा मन हरण भयो जव समाचार सब पाये। सुफलकसुत मनहीं मन संकुच्यो करों कहा अवकाजा देत न वने वनै नहिं राखत उर डेरा त उठि भाजासिब यादव मिलि हरिसी इह कह्यो सुफलकसुत जहां होइ । अनावृष्टि अतिवृष्टि होति नहि इह जानत सबकोइ ॥ कीजै दोष, क्षमा अव ताको हरि. तर ताहि बुलायो । कहो. कहा कहिए अब तुमसों तिन शिर नीचो नायो । पुनि कह्यो मणि सतभामाको दै याते भय भयो.. तोही । मणि वनदै बहुरोहि तेहीदेइ कह्यो लोभ नहिं मोही । लोभ भलो नाहीं दूनो पुर लोभ किये तप जाई । सूर लोभ कीनो सो विगोयौ शुक यह कहि समुझाई ।। २७॥। अध्याय ॥ ५८ ॥ पंचपटरानीका विवाह अकृिष्ण सों भया। राग-विलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरो सब कोई ।। हरि हरि सुमिरत सव सुख होई ॥ हरि हरि सुमिरयो है जिन जहां।हरि तेहि दरशन दीन्हों तहां ॥ हरि सुमिरन कालिन्दी कीन्हो । हरि वहां जाइ दरश तोह दीन्हों ।। पाणिग्रहण पुनि ताको कीन्हो : सवै भांति ताको सुख दीन्हो ॥ हरिहि मित्रविदा चित ध्यायो । हरि तहां जाइ विलंब नलायो॥ करि विवाह ताही लै आयो। तासु मनोरथ सकल पुजायो । हरि चरणन सीता चित दीन्हों। ताको पिता परण यह कीन्हो ॥ सात बैल इह नाथै जोइ । सीता व्याह ताहि सँग होइ ॥ हरि तहां जाइ तासु प्रण राख्यो। धन्य धन्य सव काहू भाष्यो । ताके पिता व्याह जव कियो । दाइज-बहु । प्रकार पुनि दियो । बहुरो भद्रा सुमिरो हरी। गये पास तब विलम न करी ।। ऐसेही त्रिभुवनपतिः ।। राई । ताके मनकी आश पुराई ॥ बहुरि लछमना सुमिरन कीन्हां । ताहि स्वयंवरमें हरि लीन्हों।।पांचौ वारि व्याह घर आयोसूरदास यश मंगल गायो॥२८॥ दारका मवेश. शोभा वर्णन, ॥ राग मलार ॥ देखो माई हरिजूके रथकी शोभा । योग यज्ञ तप कठिन कर्म सर्व कीज़त है जिंहि लोभा ।। चारु चक्र मणि पानि विराजत चंचल चमर पताका । श्वेत छत्र मनु शशि प्राचीदिशि प्रगव्यो रजनी राका ।। उपजत छवि कर अधर शंख निश सुनियत दुष्ट प्रशंसा । मानहु अरुन कमल मंडलमें कूजतहैं कलहंसा ॥ श्यामसुंदर सुदेश पीतपट शीश मुकुट उरमाला। जनु धन: दामिनि रवि तारागण उदित एकही काला ॥ आनंदित सुत बंधु जननि पितु कृष्ण मिलन पिय भावासूरदास प्रभु द्वारकावासिनि प्राणनाथ हियभावै॥२९॥ अध्याय ॥ ५९ ॥ भौमासुर. वध ॥ नृप । कन्या मोक्षासुरतरु आगमन॥षोडससहस्र रानी विवाह॥राग गौरी ॥ सतभामासों इती वात जवते न कहीरी।। कितिक कठिन सुरतरु सूप्रनकी या कारणतू रुठि रहीरी॥परमुख सुख जना उनदीने विन काजेदि - -