पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७

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(११) । - सुरसागर-सारावली। जानी ॥ ३८३ ।। कन्या मांग लई तब राजा नेकु शक नहिं आनी । पटकत शिला गई आकाशे कंस प्रतीति न मानी ॥ ३८२ ॥ भइ आकाशवाणी सुरदेवी कंस यहीं अवआई । तेरो शत्रु प्रकट कहुँ व्रज में काहु लख्यो नहिं जाई ॥ ३८३ ॥ जैसे मीन करत जलक्रीडा जलमें रहत समाई ! त्यो तुवकाल प्रकट इक कतहूं लखि न सकत तेहि कोई ॥३८४ ॥ अन्तान भई सुरदेवी कंस प्रतीति जो मानी । तब वसुदेव देवकीके गृह कंस गयो यह जानी ॥ ३८५॥ क्षम अपराध देवकी मेरो लिख्यो न मेव्यो जाई । मैं अपराधकिये शिशु मारे करजोरे विललाई ॥ ३८६ ।।.. पृनि गृहआय सेजपर सोयो नेकु नींद नहिं आवै । देश देशके दूतबुलाये सबहिनमतोसुनावै॥ ॥ ३८७ ॥ दीनहीन जो असुर चढत बलि करत. सकल पुनि तैसो। झतनहि तन भार उतारेउ जलको माखनजैसो ॥ ३८८ ॥ भयो भोर यशुमति गृह आनंद मंगलचार वधाई। जागी महरि पुत्र मुख देख्यो आनंद उरन समाई ॥ ३८९ ॥ जैसे शशि प्रकटत प्राचीदिशि सकल कलाभरिपूर । यशुमतिकोख आय हरि प्रकटे असुर तिमिरकर दूर ।।३९ ॥ नन्दराय घर ढोटा जायो महर महासुख पायो । विप्र बुलाय वेदध्वनि कीन्हीं स्वस्ती वचन पढ़ायो । ॥ ३९१ ॥ जातकर्मकर पूजिपितरसुरपूजन विप्र करायो । दोइलख धेनुदई तेहि अवसर बहुतहि दानदिवायो॥३९२॥ पर्वत सात तिलनको कीन्हां रत्ननओघमिलायो। मागध सूत और वन्दीज़न और ठऔर यश गायो॥३९३॥ वाजे वजत विचित्र भाँति सो रहयर घोप. सब गाज। सुर सुमनन वरषावत गावत व्योम विमानन साज ॥ ३९ ॥ बांधत वन्दनवार साथिये द्वारेध्वजा सोहाई। कनक कलश प्रति पौर विराजत मंगलचार बधाई ॥३९॥ सुरभी वृषभ सिंगारे बहुविधि हरदी तेल लगाई। सुवरण माल विचित्र धातुएँग अंग अंग चित्र बनाई ॥३९६॥ आये गोप भेंट लैलैक भूषण वसन सोहाये । नानाविधि उपहार दूध दधि आगेधार शिरनाये ॥३९॥ यशुमतिके गृह | पुत्र प्रकटभयो सुनी सकल वजनारी। मंगलसाज सँवार हाथले घर घर मंगलकारी॥३९८अति आतुरकै चली झुण्डजुरि शिर सुमनन वरसावें । मानों रीझ मधुप धरणी को रस पराग दरशावें ॥ ॥३९९ ।। पहुँची जाय महर मन्दिरमें करत कुलाहलभारी। दरशनकार यशुमतिसुतको सब लेनलगी बलिहारी ४००॥ नाचतगोप परस्पर सवमिलि छिरकतहैं नवनीत । दूध और दधि और हरदजल सींचतहैं करप्रीत ॥ ४०१॥ यशुमतिकोखिसराहि पलैया लेनलगी जनार । ऐसोसुत तेरेगृह प्रकटयो या ब्रजको शृंगार ॥ ४०२॥ यशुमति रानी देति वधाई भूषण रत्न अपार । फूलीफिरत रोहिणी मइया नख शिखकर श्रृंगार ॥ ४०३॥ देतअशीशचलीवजसुन्दरि जियउपज्योसुखभारी। गृहपूजनसवकियो वेदविधि नंदरायसुखकारी॥18॥देशदेशते ढाढ़ी आये मनवांछित फलपायो । कोकहि सकै दशौंधी उनको भयो सवन मन भायो । ४०५ ।। तादिन ते सगरे या ब्रज स्मारूप दरशायो। निजकुल वृद्धजानि इकढाढ़ी गोवर्धनते आयो॥४०॥ परम उदार महर ब्रजपति जू ढाढ़ी निकट बुलायो । वाजत हुडुक मँजीरा नूपुर नानाभांति नचायो । ॥ ४०७ ॥ अँगा पगा अरु पाग पिछौरी ढादिनको पहिरायो ॥ हरि दरियाई कंठलगाई परदरशात उठायो ४०८ बहुतदान दीन्हें उपनँदजू रतन कनक मणिहीर ।धरानन्द धन बहुतहिदीन्हों ज्यो. वरपत घन नीर ॥४०९॥ कुण्डल कान कंठ माला दै ध्रुवनंद अति सुखपायो । सीधो बहुत सुर सुरानंदै गाडाभरि पहुँचायो ४१० कर्माधर्मानन्द कहते हैं बहुतहिदान दिवायो । ब्रजरानी ढांदिन | पहिराई मनवांछित फल पायो॥ ४११॥चले भवनको दै अशीश दोउ.निर्भय कीरति गावैः।। %3- -