पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७२

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दशमस्कंध-उत्तरार्ध १० .. - शिरनाइ :तव कहि सुनायो ॥ प्रगट तुम कपट तुम तुमहि सब आत्मा निकारयो । आमेरुद्र कतिहारी।बुद्धि विधि चंद्रमा मन अहंकारमें धार चरण रोम तू पृथ्वी सारी शीश आकास अरु श्रवण दशहूं दिशा इंद्र करलोक नृय वपु तिहारो वाण जगदीश मोहिं जान मईसतुम राखितेहि अवनाथ हाथचारोविहंसि जगदीश कह्यो रुद्र जो तोहिभजै तहाँ जाउँ यह प्रण हमारोकियो प्रहाद कुल अभै मैं पर्थ महिवाण कियो अमर भाषे तिहारी।करै जो सेव तुम्हरी सोमम सेवहै विष्णु शिव ब्रह्म ममरूप सारी ॥ वाण अभिमान मन माँह धारयो हुत्यो योविदित हाथ ताते सँहारी । रुद्र अरु बान अनिरुद्ध सन्मान करि तुरत भगवानके निकट ल्याये । बहुरि ऊपा दई व्याह दाइज सहित करै सुमिरनतिसे भै नहोई । करो जो व्यास शुकदेव भागवतमें कही अब सूरजन गाइ सोई॥३६॥ अध्याय || ६४ ॥ नृग राना उद्धार | राग सारंग ॥ अविगति गति जानी न परै । राईते. पर्वत करि डार राई मेरु करै ।। नृगराजा नित सहस गऊदै करत हुत्यो जलपान । नृगते गिरगिट कीन्हे ताको कोकरि सके वखान ॥ कूपमाहि तहि देखि बालकन हरिसों को सुनाई।कृपानिधान जानि अपनोजन आये तहँ यदुराई ॥ अंधकूपते काढि बहुरि तेहि दरशनदै निस्तारा । सूरदास सव तजि हरि भजिये जव कब करे उधारा॥३६॥अध्याय ॥ ६५ ॥ भलभद्र वृंदावन आये ॥ विलावल ॥श्याम रामके गुण नित गावों । श्याम रामहीसों चितलावों ॥ एक बार हरि निज पुर छये । हलधरजी वृन्दावन गये । यह देखत लोगन सुखपाये । जान्यो राम श्याम दोउ आये ॥ नंद यशोमति जब सुधिपाई । देह गेहको सुरति भुलाई ॥ आगे है लेवेको धाए । हलधर दौरि चरण लपटाए ।। वलको हित करि गले लगाये । दै अशीश बोले ताभाये ॥ तुमतो भली करी बलराम। कहांरहे मनमोहन श्याम ॥ देखी कान्हरकी निठुराहे । कवहूं पातीहू न पठाई ॥ आपुजाइ वहांराजा भए । हमको विछुरि बहुत दुखदये । कहो कबहुँ हमरी सुधि करत । हमतो उन विनु बहदुख भरत ॥ कहाकर वहां कोउ नजात । उनविनु पल पल युगसम जात ॥ यहि अंतर आए सब ग्वार । वैठे सवन यथा व्यवहार ॥ नमस्कार काहूको कियो । काहूको भर अंकम लियो। गोपी जुरीं मिलीवन आई । अतिहित साथ अशीश सुनाई ॥ हरि करि सुध सुधि बुधि विस राईतिनको प्रेम कहो नहिं जाई ॥ कोउ कहै हरि व्याही बहु नार । तिनके बन्यो बहुत परिवार। उनको इह हम देत अशीसा सुखसों जीवें कोटि वरीसाकोऊ कहैं हरिहि नहिं चीन्हो । विन चीन्हें उनको मन दीन्हो।निश दिन रोवत हमैं विहाहाकहो कहा हम करें उपाइकोउ कहै इहां चरावत गाइ। राजाभये द्वारका जाइ ॥ काहेको वै आवै इहां भोग विलास करत नित उहां। कोउ कहै हरि रीत सब तई।और मित्रनको सब सुख दुई।विरह हमारो कहां रहि गयो। जिन हमको अतिही दुख दयो॥ कोउ कहै जे हरिजीकी रानी कौन भांति हरिको पतियानीकोउ कहै चतुर नारि जो होई। करिहै नहीं निवारो सोई॥कोउ कहै हम तुम क्यों पतिआई।उनको हित कुल लाज गवाई।हार कछु ऐसो टोना जानतासबको मन अपने वश आनत ॥ कोउ कहै हम हार सब विसराहाकहा कहैं कछु कहो न जाइ।।हरिको सुमिरि नयनजल ढारेनिक नहीं मन धीरज धारे॥इह सुनि हलधर धीरज धार। कह्यो आइहैं हरि निरधार॥जब बल इह संदेश सुनायो । तव कछु इक धीरज मन भायो॥वलि तहँ रहे बहुरि दुइ मास । ब्रजवासिनसों करत विलास ॥ सवसों मिलि पुनि निजपुर आये। सुरदास हरिको गुणगाये॥३७॥ सारंग ॥ वारुणी बल धर्म लोचन विहरत वन सचुपाए।मनहु महा गजराज विराजत करनि यूथ संग लाए ॥ मुकुलित केश सुदेश देखिअत नीलवसन लपटाये।। -