पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७३

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(५८०) ... सरसागर। . ...... . भरि अपने कर कनक कचोरा पीवति प्रियहि चुखाए ॥ हँसत रिसात बुलावत वरजत तरसत भौंह चढाए । उदित सुदित उठि चलत डगमगत अनुज सुरति जिय आये ॥ इंद्र धनुष भुव चाप अधिक छवि वर वनितनके भाये । सर्वस राीझ देत अपने रस सूरझ्याम गुणगाय॥३८॥सारंग। वारुनी बलराम पियारी। गौतम सुता भगीरथ वीवर सबहिनते सुंदरि सुकुमारी.॥ ग्रीवा पाहुं गला रन गाजत सुखसजनी सतिभाय सवारी ॥ संकर्षणके सदा सुहागिनि आति अनुराग भाग बहुभारी | वसुधा घर जु वाम गिरिराजत भाजति सकल लोक सुखकारी प्रथम समागम. आनंद आगम दूलह वर दुलहिनी दुलारी॥ रतिरस रीति प्रीति परगटकार राम काम पूरणप्रति पारी। सूर सुभाग उदित गोपिनके हरिजू रति भेटे हलधारी॥ ३९ ॥ कालिंदी सुन कयो.. हमारो । बोली वेगि चलहि वन विहरत न्हाहिं शरीर भयो श्रम भारी ॥ अतिही सतरहोइ जिनि सरिता छोड़ि गर्व या गुणकोगारो । आपनि सौंह कृष्णकी कानी राखतहौं यश मान तुम्हारो ॥ इतहु महातम मोहिं देखावत भवरतरंग प्रवाह पसारो । इन खुनसन गोपाल. दोहाई हल करि लैचि करों नदि नारो॥ शिव विरंचि सनकादि सकल मुनि बोलवचनको उधो टारो । सूर सुभद्रः श्यामके मैयहि निपट नदी जानत मतवारो.॥ ४० ॥ यमुना आइगई वलदेव । जो तुम कोही सौंह करीही संतत सादर सेव ॥ सुर नर मुनि जन गन गंधर्व ए सव. बचननके देव । सूर भनो यह मानु करतही अवलंबनकी टेव ॥ ४ ॥ कालिंदीहै हरिकी प्यारी । जैसे मोपै श्याम करतहैं तैसी तुम करहु कृपानिनारी॥ यमुना यशकी राशि चहूं युग यम जेठी जगकी महतारी।सूर कछू जिय जिनि दुखपायो कहा करौं यह टेव तिहारी४२॥रामकली. श्री यमुनाजी तिहारो दरश मोहिं भावै । वंशीवटके निकट वसतहौ लहरनिकी छवि आवै ॥ दुखह रनी सुखदेनी श्रीयमुना प्रातहिं जो यशगावामदनमोहनजूकी अधिक पियारी पटरानीजू कहावै ।। वृंदावनमें रास विलास मुरली मधुरवजावै।सूरदास दंपति छवि निरखत विमल विमलयशगाव ४३॥ अध्याय ॥ ६६ ॥ पुंडरीकउद्धार ॥ विलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोय । हरिके शत्रु मित्र नहि दोयाज्यों सुमिरै त्योंहींगतिहोइ । हरि हरि हरि सुमिरहु सबकोइ।। पुंडरीक काशीको राइ.। हरिको सुमिरै वैर सुभाइ ॥ अहनिाशरहै एहिलवलाई । क्यों कर जीतौं यादवराई :॥ द्वारावती तिन दूत पठायो। ताको ऐसे कहि समुझायो । चारि भुजा मम आयुधधारा । वासुदेव मैंही निरधाराः॥ योहींकह्यो यदुपतिसों जाई । कपट तजौं की करो लराई ॥ दूतआई हरिसों सब कह्यो। हरिजी तेहि यह उत्तर दयो।जोतकहीं सो हम सब जानी पुंडरीककी आयु सिरानीकहो जाइ.करै युद्धः || विचार । सांच झूठ होइहै निरुआर ॥ दूत आइनिजनृपहिं सुनायो। तब उन मनमें युद्ध ठहरायो। ।। जहां तहांते .सबन बुलाइ । तब लगि यदुपति पहुँचे आइ ॥ पुंडरीक सुनि सन्मुख आयो । पांच क्षोहनी दल सँग ल्यायोसिना देखि अस्त्र सँभारी ।यदुपतिके लोगन पर डारी॥हरि कह्यो तू अजहूं संभारी सांच झूठ जिय देख विचारी ॥ ताकी मृत्यु आइ निअरानी । जो हरि कही सोमन नहि आनी॥ यदुपति तव निज चक्र संभारयो। ताकी सैना ऊपर डारयो।ऐसे हैं त्रिभुवनपति राई।। जाकी महिमा देवन गाईकोऊ भजो काहू परकारा। सूरदास सो उतरै पारा॥४४॥ अध्याय ॥ ६७ ॥ दिविदव सुतीक्ष्ण वध .॥ मारू ॥ द्विविद करि क्रोध हरि पुरी आयो। नृप सुदक्षिण जरयो. जरी बारा || णसी धाइ धावन जबहिं यह सुनायो ॥ द्वारका माँह उत्पात बहुभांति करि बहुरि रेवत अचल. गयो धाई। तहाँहूँ देखि बलरामकी.सभाको करन लागो निडर बै ढिगई ॥ लख्यो वलराम । -