पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७४

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दशमस्कन्ध-उत्तरार्ध. (६८) यह सुभटवंत है कोऊ हल मुशल शस्त्र अपना सँभारयो । दिविद ले शालवृक्ष सन्मुख भयो फुरत करि राम तनु फेंकि मारयो ॥ राम दल मार सो वृक्ष चुरकुट कियो द्विविद शिर फटगयो लगत ताके । बहुरि तरु तोरि पापाण फटकन लग्यो हल मुशल करन परहार बांके ॥ वृक्ष पापाणको जब वहां नाश भयो मुष्टिका युद्ध दोऊ प्रचारी। रामकी मुष्टिका लगे गिरयो सो धरणिपर निकसि गयो प्राण सुधि बुधि विसारी ॥ सुरन आकास से पहप वर्षाकरी कार नमस्कार जैजै उचारे । देवता गये सब आपने लोकको सूर प्रभु राम. निजपुर सिधारे॥१५॥ अध्याय ॥ ६९ ॥ सांव विवाह ॥ आसावरी ॥ श्याम बलराम को सदा गाऊोश्याम बलराम विनु दूसरे देवको स्वप्नहू माहं नहिं शीशनाऊंश्याम सुनि सांव गयो हस्तिनापुर तुरत लक्ष्मणा जहां स्वयंवर रचायो।देखते सबनके ताहि वैगरि रथ आपने देशको पलटि धायो । कर्ण दुर्योधनादिक लियो घेरि तेहि कर्ण ढिग आइ बहुवाण मारे।सांव तेहि काटि निज वाण संधान करि तुरँग रथ नाश करि सव संहारे।हतेउ पुनि सारथी एकही बाण करि परयोसो धराणि गिरिसुधि वि सारी।एक इक वाण भेज्यो सकल नृपनपै मानो सब साथ कीन्हे जोहारी।देिखि यह सुरन धनिधन्य सवहिन करयो पुनि करण अश्वरथके संहारी । सांवपै कोप करि बैठार रथ आपने सुभट सब हस्तिनापुर सिधारी ॥आइ नारद कही तुरत भगवान सो चले भगवान हलधर बोलाई । कह्यो में जाइकै ल्याइहौं सांवको कौरवन सों सदा हित हमारे । प्रीति की रीति समुझाइ के नतरु मैं एकही मुशल सबको सँहारो । जाइ बलराम भेटे सकल कौरवन बहुरि तिन सबन पुनि काहि सुनायो । सांवसों चूक जो भई बालक हुतो तुम्हें नहिं बूझिये जो वधायो ॥ कयो दुर्योधन आत कोप तहि दोप नहिं दोष सब लगै पुर गये हमारे । जो मने कियो सन्मान निज सभामें बहुरि इन ओर हित कार निहारे । जाम्बवंत सुता सुत कहां मम सुता बुधि वंत पुरुप यह सब संभारे । अरु सदा देत यादवसुता कौरवन कहत अव वात बल सुनि. विचारै ॥ कह्यो बलराम यह सांवसुत श्यामको रुद्र विधि रेणु जाकी न पावें। इंद्र सुर सकल दरवार ठाढे रहैं सिद्ध गंधर्व गुण सदा गावें ॥ बहुरि कार कोप हल अग्र पर वक्रधर कटक भेदरर चाहत डुबायो।कौरवन मिलि बहुरि भांति विनती करी दोप तिनको द्विजन मिलि क्षमायो।सांवको लक्ष्मिनासहित ल्याये बहार दियो दाइज अगिन गिनन जाई । सूर प्रभु राम बलराम अतुल को तुहल नीके कर आनंद निज पुरी आई ॥४६॥ अध्याय ॥७०॥ नारदसंशय दारका आगमन ॥ धनाश्री ॥हरि की लीला देखि नारद चकृत भये । मन यह करत विचार गोमती तर गये। अलख निरंजन निर्वि. कार अच्युत अविनाशीवित जाहि महेश शेप सुर माया दासी । धर्म स्थापन हेतु पुनि धारचो | नर अवतार । ताको पुत्र कलत्रसों नहिं संभवत पियार ॥ हरिके पोड़श सहस हैं पतिवर्तानारी। सबसों हरिको हेत सबै हरि जीकी प्यारी ॥ जाके गृह दुइ नारि होई ताहि कलह. नित होइ । हरि विहार केहि विधि करत नैनन दे खों जोइ ।। द्वारावति ऋपि पैठ भवन हरि जू के आयो । आगे होइ हरि नारि सहित चरणन शिरनायो ॥ सिंहासन बैठार के प्रभु धोये चरण बनाइ । चरणोदक शिर धार कह्यो कृपाकरी ऋपिराइ ॥ तव नारद हँसि कंह्यो सुनो त्रिभुवनपति राई । तुम देवनके देव देतहो मोहि बडाई ॥ विधि महेश सेवतं. तुम्हें मैं बपुराकेहिमाहीं। कहत तुम्हें ब्राह्मण देवता यामे अचरज नाहीं ॥ और | गेह ऋषि गये तहां देखे यदुराई. । चमर ढोरावंत नारि करत दासी सेवकाई ॥ ऋषिको रूपे