पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७५

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(५८२) सूरसागर। ... देखि हरि बहुरि कियो सन्मानः । उहँऊते नारद चले करत ऐसा अनुमान ॥ जागृह में | मैं जाउँ. श्याम, आगेही आवत । ताते छोडि सुभाव जाउँ अब कैसे धावत ॥ जहां नारद श्रम करि गये. तहां देखे धनश्याम । पालनहू क्रीडा करत करजोरे खडी वामः॥ नारद जहाँ जहाँ जाइतहाँ तहाँ हरिको देखे । कहुँ कछु लीला करत कहूं कछुलीला पेखै योही सब गृहमें गये भयो न मन विश्राम । तब ताको व्याकुल निरखि हसि वाले घनश्याम ॥ नारद. मनकी भर्म तोहि यतनो भरमायो । मैं व्यापक सब जगत वेदचारों मुख गायोः॥ मैं कर्ता मैं भुक्ता मोहिं विनु और नकोइ । जो मोको ऐसो लखै ताहि नहीं भ्रम होइ ॥ बूझो सब घर जाइ सबै जानत मोहियोंहीं । हरिकी हमसो प्रीति अनत कहूँ जात न क्योंहीं ॥ में उदास सबसों रहों इह.मम सहज सुभाइ। ऐसो जानै मोहिं जो मममाया नरचाइ ॥ तब नारद करजोरि करो तुम अज अनंत हरि। तुमसे तुम विन द्वितिय कोउ नाही उत्तमसुर ॥ तुम माया तुम कृपा विनु सकै नहीं तरिकोइ । अब मोको कीजै कृपा ज्यों न बहुरिभ्रम होइ ॥ ऋषि चरित्र मम देखि कछु अचरज मतिमानो । मोते द्वितिया और कोऊ मनमाहिं न आनो ॥ मैं ही कर्ता मैहीं भुक्ता नहि यामें संदेहु । मेरे गुण गावत फिरौ लोगनको सुख देहुं ॥ नारद करि परणामः चले हरिके गुण गावत । वारवार उरहेत ध्याइ हृदयमें ध्यावत ॥ इह लीला करि अचरजकी सूरदास कहिगाइ। ताको जो गावै सुनै सो भवजल तरिजाइ ७॥अध्याय ॥ ७१ ॥ भगवान हस्तिनापुर चले जरासंध वधहेतु ॥ ॥ राग मारू ॥ चले हरि धर्मसुअनके देश । वैदित जन भूभार उतारन काटन वंदी कठिन नरेश.॥ जब प्रभु जाइ शंखध्वनि कीनी ठाढ़े नगर प्रवेस । सुनि नृपवधू : सकल उठिधाई डार चरणरजुकेश ॥ शीशनाइ करजोरि कह्यो तब नारद सभा सहेस । तत्क्षण भीम धनंजयमाधो धन्य द्विजनको भेस ॥ पहुँचे जाइ राजगिरि द्वारे धुरे निसान सुदेश । यांच्यो जाइ अतिथि रूप है आशिश युद्धनरेश ।। जरासंधको युद्ध अथरबल रहत नक्षत्रीलेस। सूरझ्याम दिन सात बीतं तिन तोरिव काटि कलेस १८॥ कान्हरो ॥ राजरवनि गावत हरिको यश । रुदन करत सुतको । समुझावति राखति श्रवणन प्यार सुधारस ॥ तुम जिनि जीव डरहुरे बालक कृपासिंधुके शरन सदावसु । ताजे जिय सोच तात अपनेको करि प्रतीति निश्चय है है हँसुजिन प्रभु जनकसुता प्रण: राख्यो अरु रावणकें शीश सकल नासोई सूर सहाय तुम्हारो मोचन गोप गयंद महापशु ॥४९॥" ॥ धनाश्री ॥ इहां और कासों कहाँ गरुड़गामीः। दीनबंधु दयासिंधु अशरन शरन सत्य सुखधाम सर्वज्ञ स्वामी ॥ इन जरासंध मदअंध मम मान मथि वांधि विनु काज चल इहां आने । भए आरूढ अति क्रोध जिनि गिरि गुहा रहत भुंगी क्रीट ज्यों त्रासमाने ॥ नाहिने नाथ. जिय सोच धन धरणिको मरनते अधिक यह दुख सतावै । भृत्यकी रीति तजि होत मांगध सकल नाथः जिनि दमत उद्वेग पावै ॥ मधु कैटभ. मथन मुर भौम केशी भिदन कंस कुल काल अनुसाल हारी । जानि युगजूपमें भूपतद्रूपता बहुरि करिहै कलुष भूमि भारी ॥ वदत नृप दंत भैभीत उर मीरता सुनत हरि सूर सारथि बोलायो । भयो आरूढ़ तकि ताहि उत्तर दियो जाइ सुखदेड याहेतुआयो॥२०॥ अध्याय ॥ ७२ ॥ जरासंघवध ॥ रागमारू किसखलदलन रनराम रावणहतन सँहारी। दीन दुखहरन गज मुक्तकारी।नृपति चहुंदेश के बंदी जरासंधुके रैनि दिन रहत जिय दुखित भारी। || सुने यदुनाथ इह बात तब पथिकसों धर्मसुत के हृदय यह उपाई। राजसूयज्ञको कियो 'आरं । भमैं ज़ानिक नाथ तुमको सहाई । भीम अर्जुन सहितः विप्रको रूपधरि हरि जरासंघसों युद्ध