देखि हरि बहुरि कियो सन्मानः । उहँऊते नारद चले करत ऐसा अनुमान ॥ जागृह में मैं जाउँ श्याम, आगेही आवत । ताते छोडि सुभाव जाउँ अब कैसे धावत ॥ जहां नारद श्रम करि गये तहां देखे धनश्याम । पालनहू क्रीडा करत करजोरे खडी वाम ॥ नारद जहाँ जहाँ जाइतहाँ तहाँ हरिको देखे । कहुँ कछु लीला करत कहूं कछुलीला पेखै योही सब गृहमें गये भयो न मन विश्राम । तब ताको व्याकुल निरखि हसि वाले घनश्याम ॥ नारद मनकी भर्म तोहि यतनो भरमायो । मैं व्यापक सब जगत वेदचारों मुख गायो ॥ मैं कर्ता मैं भुक्ता मोहिं विनु और नकोइ । जो मोको ऐसो लखै ताहि नहीं भ्रम होइ ॥ बूझो सब घर जाइ सबै जानत मोहियोंहीं । हरिकी हमसो प्रीति अनत कहूँ जात न क्योंहीं ॥ में उदास सबसों रहों इह मम सहज सुभाइ । ऐसो जानै मोहिं जो मममाया नरचाइ ॥ तब नारद करजोरि करो
तुम अज अनंत हरि। तुमसे तुम विन द्वितिय कोउ नाही उत्तमसुर ॥ तुम माया तुम कृपा विनु सकै नहीं तरिकोइ । अब मोको कीजै कृपा ज्यों न बहुरिभ्रम होइ ॥ ऋषि चरित्र मम देखि कछु अचरज मतिमानो । मोते द्वितिया और कोऊ मनमाहिं न आनो ॥ मैं ही कर्ता मैहीं भुक्ता नहि यामें संदेहु । मेरे गुण गावत फिरौ लोगनको सुख देहुं ॥ नारद करि परणामः चले हरिके गुण गावत । वारवार उरहेत ध्याइ हृदयमें ध्यावत ॥ इह लीला करि अचरजकी सूरदास कहिगाइ । ताको जो गावै सुनै सो भवजल तरिजाइ ४७॥ अध्याय ॥ ७१ ॥ भगवान हस्तिनापुर चले जरासंध वधहेतु ॥ ॥ राग मारू ॥ चले हरि धर्मसुअनके देश । वैदित जन भूभार उतारन काटन वंदी कठिन नरेश ॥ जब प्रभु जाइ शंखध्वनि कीनी ठाढ़े नगर प्रवेस । सुनि नृपवधू सकल उठिधाई डार चरणरजुकेश ॥ शीशनाइ करजोरि कह्यो तब नारद सभा सहेस । तत्क्षण भीम धनंजयमाधो
धन्य द्विजनको भेस ॥ पहुँचे जाइ राजगिरि द्वारे धुरे निसान सुदेश । यांच्यो जाइ अतिथि रूप है आशिश युद्धनरेश ॥ जरासंधको युद्ध अथरबल रहत नक्षत्रीलेस । सूरझ्याम दिन सात बीतं तिन तोरिव काटि कलेस ॥४८॥ कान्हरो ॥ राजरवनि गावत हरिको यश । रुदन करत सुतको । समुझावति राखति श्रवणन प्यार सुधारस ॥ तुम जिनि जीव डरहुरे बालक कृपासिंधुके शरन सदावसु । ताजे जिय सोच तात अपनेको करि प्रतीति निश्चय है है हँसुजिन प्रभु जनकसुता प्रण राख्यो अरु रावणकें शीश सकल नासोई सूर सहाय तुम्हारो मोचन गोप गयंद महापशु ॥४९॥
॥ धनाश्री ॥ इहां और कासों कहाँ गरुड़गामी । दीनबंधु दयासिंधु अशरन शरन सत्य सुखधाम सर्वज्ञ स्वामी ॥ इन जरासंध मदअंध मम मान मथि वांधि विनु काज चल इहां आने । भए आरूढ अति क्रोध जिनि गिरि गुहा रहत भुंगी क्रीट ज्यों त्रासमाने ॥ नाहिने नाथ जिय सोच धन धरणिको मरनते अधिक यह दुख सतावै । भृत्यकी रीति तजि होत मांगध सकल नाथ जिनि दमत उद्वेग पावै ॥ मधु कैटभ मथन मुर भौम केशी भिदन कंस कुल काल अनुसाल हारी । जानि युगजूपमें भूपतद्रूपता बहुरि करिहै कलुष भूमि भारी ॥ वदत नृप दंत भैभीत उर मीरता सुनत हरि सूर सारथि बोलायो । भयो आरूढ़ तकि ताहि उत्तर दियो जाइ सुखदेड याहेतुआयो ॥२०॥ अध्याय ॥ ७२ ॥ जरासंघवध ॥ रागमारू ॥ किसखलदलन रनराम रावणहतन सँहारी । दीन दुखहरन गज मुक्तकारी । नृपति चहुंदेश के बंदी जरासंधुके रैनि दिन रहत जिय दुखित भारी। सुने यदुनाथ इह बात तब पथिकसों धर्मसुत के हृदय यह उपाई। राजसूयज्ञको कियो आरं । भमैं ज़ानिक नाथ तुमको सहाई । भीम अर्जुन सहित विप्रको रूपधरि हरि जरासंघसों युद्ध
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सूरसागर।
