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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७६

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दशमस्कन्ध-उतरार्ध


माग्यो । दियो उनपै कह्यो तुम कोऊ क्षत्रि कपटकार विप्रको स्वांग स्वांग्यो । हार कयो भीम अर्जुन दोऊ सुभट ये कृष्ण मैं देखि लोचन उपारी । वचन जो कही प्रतिपाल ताको करो कै सभा मांह सत जाहु हारी ।। पार्थ अरु तुम समर्थ सम युद्धको भीमसों उन यह कह सुनाई । बीस औ सप्तदिनयों गदायुद्धकियो दोउ बलवंत कोउ लियो नजाई ॥ श्याम तृणचीर देखराय दियो भीमको भीम तव हार्प ताको संहारयो। जराजरासंधको की संधि । जोरचो हुत्यो भीम ता संघको चीर डारयो । नृपनको छोरि सहदेवको राज्यदियो देव नर सकल जैनै उचारयो । सूर प्रभु भीम अर्जुन सहित तहांते धर्मसुत देशको पुनि सिधारयो ॥५१॥ अध्याय ॥ ७३ हस्तिनापुरआये ॥ रागसारंग ॥ जीत्यो जरासंध बंदि छोरीयुगल कपाट विदारि वाटकरि लतनि जुही संधियोरी ॥ विषम जाल बल वांधिव्याधलौं नृप खग अवलि बटोरी । जनु सुअहेरो हति यादवपति गुहापीजरी तोरी ॥ निकसे देत अशीश एकमुख गावत कीरति कोरी । जनु उडचले विहंगम कोगन कटी कठिन पग डोरी । मिटिगए कलह कलेश कुलाहल जनु कार बीती होरी । सूरदास प्रभु अतुलित महिमा जोकछु का सोथोरी ॥ राग मारूजीत्यो जीत्यो हो यदुपति रिपु दल मारयोतिउन तजत हठ परम शठ नाजाना कुबुद्धि जड के वारहे विदारयो । वरवरमूढा उठि खेलत वालक सुठि आनितइधन दौर दौरि संचारयो । ऐसे इहु नृप नर सकल सकेंलि घरकेसाककरन हृद रस वकुल जारयो को नकाहूको करै बहुरि बहुरि अरै एकही पाइदै इक पग पकरि पछारयो।सूरस्वामी अति रिस भीमकी भुजाके मिस व्यौतत वसन ज्यों सुत तन फारयो ॥५२॥ समूह राजा विनती ॥ विलावलाजाहि कहा अपराधभरे । तुम माता तुम पिता जगतगुरु तुमही सहोदर बंधु हरे ॥ वसन कुचील देह अति दुर्वल उमॅगि प्रेम जल सिथिल भरे । राजा सवै वंदिते छोडे आइ कृष्णके पाँइ परे ॥ सावधान करि विदा दई हरि उठे कमल कर शीशधरोसूरदास प्रभु तुम्हरी कृपाते भवसागरके मांझ तरे५३॥ अध्याय ॥४॥पांडवयज्ञ शिशुपालगति ॥ राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरो सबकोइ । शत्रु मित्र हरि गिनत न दोइ ॥ जो सुमिरै ताकी गति होइ । हरि हरि हरि सुमिरो सव कोइ ॥ वैरभाव सुमिरयो शिशुपाल । ताहि राजसूमें गोपाल ॥ चक्र सुदर्शन करि संहारयो । तेज तास निज मुखमें डारयो । भक्त भाव भक्तन उद्धारत । रैरभाव असुरन निस्तारत । कोज सुमिरो काहु प्रकार । सूरदास हरिनाम उधारस ॥५४॥ अध्याय ॥ ७५ ॥ पांडयसभा दुर्योधन कोष ॥ राग विलावल ॥ भक्तकाज हरि जित कित सारे ॥ यज्ञराजसूमाहिं आपहरि सबके पाँइ पखारे ॥ अष्टनायका द्रुपदसुताकी करें तहाँ सेवकाई दुर्यों धनय हरीति देखिकै मनमें रह्यो खिसाई ॥ भक्त संग हरि लागे डोलत भक्तवत्सल प्रभु भौरी । सब विधि-काज करत भक्तनके गनत नहीं हम कोरी॥जीते जीतत- भक्त आपनकी हारे हार विचा रत । सूरदास प्रभु रीति सदा यह प्रणयुगयुग प्रतिपारत ॥ अध्याय ॥७६॥ तथा ७७ ॥ शाल्वदारका आक्रमण प्रद्युम्नशाल्व युद्ध शाल्व पधाराग मारू॥ सुभट शाल्व करि क्रोध हरिपुरी आयो । हत्योशिशुपालको राजसू मांह हरि धाइ धावन जबर्हि इह सुनायो । वृक्ष वन काटि महालात ढाहन लग्यो नगरके द्वार दीनों गिराई । सर्व पापाणकी वृष्टि करि लोग पर पाइ अति पलक वीते जराई ॥ प्रद्युमन साँव रणनिकसि सन्मुख भये नंदनंदन सुनत तुरतधाईतिहाँ चारि देश दिश साजिदल मिलि सकल हाँकि स्थ तुरंग ताठौर आई।सुमिरि गोपाल तब शाल्व मारयो फटकि प्रद्युमन वाण दिशते चलायो । मिल्यो अंधकार तव वाण वर्पा करी तुरंग स्थ सारथी सो गिरायो। सैन्यके लोग पुनि बहुत घायल किये लग्यो ध्वजा धार धर परयो मुरछाईv। शाल्व इह देखिकै चकृत सो होइ रह्यो शस्त्र के गहन