पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७७

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(६८४). सुरसागर। की सुध भुलाई। अस्त्र विद्या समर बहुरि लाग्यो करन कबहुँ लघु कबहुँ दीरघ सो होई।गुप्त कबहूँ । कबहुँ प्रगट तेहि देखिकै धरती रहहि कबहुँ आकास सोई॥आग्नि कबहुँक वरखि वारि वर्षा करै प्रद्युमन सकल माया निवारी। शाल्व परधान उदमान मारी गदा प्रद्युमन मुरछित भये सुधि विसारी॥. धर्मपति सारथी गयो एकांतलै उहां जव चेत कै सुधि संभारी । खीझ कह्यो तिसे क्यों. इहाँ ल्यायो मुझे मम पिता मातको लगै गारी। कहां कहि हैं मुझे राम भगवान सुनि नारि मम सुनत अति दुखित होई। मरे रण सुयश त्रैलोक सुख पाइये मंदमति तैं दोऊ बात खोई । धर्मपति कह्यो कार विनय मम सोक नहिं सारथी धर्म मोहि गुरू सिखायो मूच्छि त सुभटहो नहीं राखि ये खेतमें जानि यह बात मैं इहां ल्यायो । प्रद्युमन कह्यो जो भई सो भई अव वात नाहिं जिन्ह किसी सो सुनैये। ताहिंदै शपथ करि आचमन यों कह्योचलो रणभूमि अब वेगि जैये। आइ रणभूमिमें सवन धीरज दियो शाल्व रथ तुरंग चारो संहारे।छत्र ध्वज तोरि मारयोवहार सारथी देखि यह दूर कियो सुभट साहिस्तिनापुर गये हते हरि पांडु गृह तहां ते चले यह बात जानी। शाल्वउत्पात कियो द्वारका मांह बहु हांकि रथ कह्यो सारंगपानी ॥ सारथी पाय रुख ये सटकार हय द्वारकापुरी जब निकट आई। शाल्वके भटन लखि कटक भगवानको आपने नृपतिसों कहो. जाई.॥ सुनि सो भगवानके आइ सन्मुख भयो सारथी दौरि वर्ली चलाई। ताहि आवत निरखि श्याम निज सांगको काटिकीर शाल्वकी सुधि भुलाई ॥ बहुरि तिन कोपि निज वाण संधानकार धनुष. भगवानको काटि डारयो । टूटते धनुषके शब्द आकाश गयो शाल्व निज जिय समुझि पुनि. उचारयो । रुक्मिणीमांगि शिशुपालकी तुम हरी बहुरि तेहि राजसूमेंसंहारयो । जाइहौ. अब कहां शिशु दाँव लेही इहां छांडितीजार आपा संभारयो । कह्यो भगवान सुनु शाल्व जे शूरनरते. नहीं करत निज मुख बड़ाई । जंगमे शूर तिनको नहीं जानिये भाषि यह गदा ताको चलाई ॥ गदाके लगतही गयो सो गुप्तहोइ धारि धावन रूप यह. सुनायो । कह्यो वसुदेव जगदीश सुनु अस्त्रजे तुअ अछत शाल मोहिं वांधि ल्यायो । बहुरि कार कपट वसुदेव तहां प्रगट कियो कह्यो तिन नाथ मैं दुखित भारी । शाल करवारले . श्यामक देखते डारिदियो ताको शीशउतारी ॥ कह्यो भगवान करि कपट इन यह कियो तासु माया तुरत हरि निवारीीभागि निज पुर चल्यो श्याम पहिलेहि पहुँचि पुनि गदा बैंचिता शीश मारी। शाल्व कियो युद्ध बहु वेरली गदा की बहार हरि सांग ताको चलाई । लगत ताके गए प्राण वाके निकसि सुरन आकास दुदुाभ बजाई। शीश ताको वहुरि काटि करवालसों नगर सब समुद्र मों डारि दीन्हों। सूर प्रभु रहे ताठौर दिन और कछु मारि दंतवक्र पुर गवन कीन्हों५६॥अध्याय ॥ ७८ ॥ दंतवक्रपरमगति ॥ मारू ॥ हरि निकट सुभट दंतवक्रआयो । कह्यो शिशुपाल तुम राज || समें हत्यो धनि सो यह हेत सुनि दरशपायो । भृत्य तुम हने संशय नहीं कछु हमैं दोउ विधिआइ प्रभु हित हमारी । जीवै तो राज सुखभोग पावै जगत मुये निर्वाण नीरस तुम्हारी ।बहुरि लै गदा प्रहार कियो श्यामपर लगे ज्यों लकुट अवुज़ प्रभारी। हरि गदा लगत गये प्राण ताके निकसि बहुरि । हरि निजवदन मांह धारी।।अनुज ताको बड़ो रथ लग्यो फिरन यों चक्रसों शीश ताको प्रहारयो। सूर प्रभु युद्ध भयो मुनि जन हरषिये सुर पुहुपवरषिजजै उचारयो।५७॥ अध्याय ॥ ७९ ॥ वल्वल वध, रामतीर्थगमन ।। मारू ॥ श्याम बलरामको सदा गाऊं । यही मम ज्ञान यह ध्यान सुमिरन यही । इहै स्नान फल इहै पाऊं ॥ श्याम दंतवक अरु शाल्वको जीत करि करत आनंद निज पुरी ||