पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७८

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दशमस्कन्ध १०-उत्तरार्ध (५८५) आये । राम गंगा और यमुना स्नान करि नीमषारण्य में जाइ न्हाय॥ सूत तहां कथा भागवतकी कहतहैं ऋपिअठासी सहस हुते श्रोता । रामको देखि सन्मान सवही कियो सूत नहिं उठ्यो निज जानि वक्ता॥ रामतेहि हत्यो तव सब ऋपिन मिलि कहो विप्र हत्या तुम्हें लगी भाई।वाहिनिमित्त सकल तीर्थ स्नान करो पाप जो भयो सो सब नशाई ॥ पुनि कह्यो ऋपिन दानव महा. प्रबल इहां हमैं दुख देत सोई सदाई । ताहि जो हतौ तो होइ कल्याण तुम्हें हम करें यज्ञ सुखसों सदाई। राम दिन कइक ता ठौर अवरो रहे आइ वल्वल तहां दई देखाई । रुधिर औ माँसकी लगो वा करन ऋपि सकल देखिकै गये डेराई । राम हलसों पकरि मूशलसों हत्यो तेहि प्राण ताज तिन सकल सुधि विसारी । सुरन आकासते पुहुप वर्षा करी ऋपिन आशीशदै जै ध्वनि उचारी ॥ बहुरि वलभद्र परणाम करि ऋपिन्ह को पृथ्वी परदक्षिणाको सिंधाये । प्रभु रची ज्योहिं ज्यों होइ सो त्योहिं यों सूर जन हरि चरित कहि सुनाये ॥२८॥ ॥ अध्याय ।। ८० ॥ तथा ॥ ८९ ॥सुदामा दारिद्रभंजन ॥ राग विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो। हरि चरणाविंद उरधरो॥ विप्र सुदामा सुमिरे हरी । ताकी सकल आपदा टरी । कहीं सो कथा सुनो चितधाराकहै सुनै सो लहै सुखसारविप्र सुदामा परमकुलीनाविष्णुभक्त सो अति लवलीन। भिक्षा वृत्ति उदर नितभरै । निशिदिन हरि हार सुमिरन करै ॥ नाम सुशीला ताकी नारी । प्रतिव्रता अति आज्ञाकारी ॥ पति जो कहै सो करै चितलाइ । सूर कयो इक दिन या भाइ॥ ॥ विलावल ॥ कहि न सकति सकुचति इक बात। कितीकार द्वारका नगरी काहे न द्विज यदुपति लौं जात ॥ जाके सखा श्यामसुंदरसे श्रीपति सकल सुखनके दात। उनके अछत आपने आलसं काहे कंत रहत कृशगात ॥ कहियत परम उदार कृपानिधि अंतर्यामी त्रिभुवन तात । द्रवत आपु देत दासनको रीझत हैं तुलसीके पात ॥ छोडी सकुच वांधि पट तंदुल सूरज संग चलो उठि प्रात । लोचन सफल करौ प्रभु अपने हरि मुख कमल देखि विलसाता॥१९॥ ॥ रागनट ॥ श्रीकंत सिधारो मधुसूदनपै सुनियतहै वै मीत तुम्हारे । वाल सखाकी विपति विहंडन संकट हरन मुरारे ॥ और जु अति आदर सुन्यो हम निज जन प्रीति विचारे । यद्यपि तुम संतोप भजतही दरश निकट सुखभारे ॥ सूरदास प्रभु मिले सुदामे सब भांति सुख दै जुनारे।।६०॥विलावल। दूरिहते देखे बलवीर । अपने बाल सखा सुदामा मलिन वसन अरु छीन शरीर ॥ पौठे हुते प्रयंक परम रुचि रुक्मिणि चमर डोलावत तीर । उठि अकुलाइ अगमने लीने मिलत नैनभरि आये नीर । तेहि आसन वैठार श्याम घन पूंछी कुशल करौं मन धीर । ल्यायही सुदेहु किन हमको अव कहा राखि दुरावत चीरोदरशन परसि दृष्टि संभापन रही नउर अंतर कछु.पीर । सूर सुमति तंदुल चवातही कर पकरयो कमला भइ भीर ।। ॥६॥ धनाश्री। यदुपति देखि सुदामा आये। विह्वल विकल छीन दारिदवश करि प्रलाप रुक्मिणि समुझाये ॥ दृष्टि परे ते दिये संभाषण भुजा पसारि अंक ले आये । तंदुल देखि बहुत दुख उपज्यो मांगु सुदामा जो मन भायोभोजन करत गयो कर रुक्मिणि सोइ देहु जो मन न डुलावै।। सूरदास प्रभु जब निधि दाता जापर कृपा सोइ जन पावै ॥६॥विलावला ऐसी प्रीतिकी बलिजाउँ । सिंहासन तजि चले मिलनको सुनत सुदामा नाउँ । गुरुवांधव अरु विप्र जानिकै चरणन हाथ पसारे । अंकमाल दै कुशल बूझिकै अधासन बैठारे ॥अर्धेगी वूझत मोहनको कैसे हितू तुम्हारे। ॥ दुर्वलदान क्षीन देखतिहौं पाँउ कहांते धारे ॥ संदीपनके हम औ सुदामा पढे येक ७४