पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६७९

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सुरसागर। .....

चटसार । सूर श्यामकी कौन चलावै भक्तन कृपाअपार ॥६३॥ धनाश्री ।। गुरु गृह जब हम वनको । जात । तुरत हमारे वदते लकरी ये सब दुख निजगात ॥ एक दिवस व भई वनमें रहिगये ताही ठौर । इनकी कृपा भयो नहि मोहिं श्रम गुरु आये भये भोर ॥ सो दिन माहिं विसरत न सुदामा जो कीन्हों उपकार । प्रतिउपकार कहाकरौं सूर अब भापत आपं मुरार॥६॥हरिको मिलन सुदामा आयो । विधि करि अरचं पाँवडे दीने अंतर प्रेम वढायोआदर बहुत कियो यादवपति मर्दन करि अन्हवायो । चोवा चंदन अगर कुमकुमा परिमल अंग.. चढायो । पूरव जन्म अदात जानिकै ताते कळू मँगायो । मूठिक तंदुल बांधि कृष्णको वनिता विनय पठायो । समदे विप्र सुदामा घरको सर्वसु दै. पहुँचायो । सूरदास बलिं बलि मोहनकी तिहूं लोक पदपायो । ६५ ॥ वह सुधि आवत तोहिं सुदामा। जब हम तुम वनगए लकरियन पठए गुरुकी भामा ॥ चपल समीर भयो तेहिरजनी भोजे चारो यामा। कांपत हृदय वचन नहि आवै आए सत्वर-धामा। तबहिं अशीश दई परसन है सफल होहु तुम कामा । सूरदास प्रभुको जो मिलन यश गावत सुर नर नामा॥६६॥ विलावल । सुदामा गृहको गमन कियो । प्रगट विप्रको कछु न जनायो मनमें बहुत दियो । वोई चीर कुचील बोई विधि मोको कहा कियो । धरिहौं कहा जाइ त्रिया आगे भारि भरि लेत हियो । भयो संतोष भाव मनहीं मन आदर पहुंत कियो। सूरदास कीन्हें करनी विन कोपति आइ वियो ॥ ६७॥ सुदामा मंदिर देखि डरयो । शीशधुनै दोऊ करमीडै अंतर सांच परयो । ठाढी त्रिया मार्ग जो जोवै ऊंचे चरण धरयो।तोहि आदस्यो त्रिभुवनको नायक अब क्यों जात फिरयो।इहां हुती मेरी तनिक मडैआ को नृपं आनि छरयो। सूरदास प्रभु कार यह लीला आपद विप्र हरयो । ६८ ॥ देखत भूलि रह्यो द्विजदीन ढूंढत फिरै न पूंछन पावै आपुन गृह प्राचीन ॥ किधौं देवमाया बौरायो किधौं अनतही आयो। तृणहुकी छाँह गई निधि मांगत अनेक जतन करि छायो ॥ चितवत चकित चहूदिशि ब्राह्मण . अद्भुत रचना रीति । ऊंचे भवन मनोहर- छाजा मणि. कंचनकी भीति ॥ पति पहिचानि धसी । मंदिरते सूर त्रिया अभिराम । आवहु केत देखि हरिको हित पाउँ धारिये धाम ॥ ६९ ॥ भूलो . द्विज देखत अपनो घर । औरहि भांति रची रचना रुचि देखतही उपज्यो हृदयडर ॥ कै यह और छिनाइ लियो कहुँ आइ रह्यो कोऊ समरथ नर । कैहों भूलि अनतखंड आयो यहु कैलास ॥ जहां सुनियत हर ॥ धजन कहत दुवल घातक विधि सोह नआजु लयो यह पटतर । ज्यों नलनी वन छांडि वसी जल दाही हेम जहां पानी सर.॥ जगजीवन जगदीश जगतगुरु अवि गति जानि भरयो । आवो चले मंदिर अपनेही कमलाकंत धरयो । ता पीछे त्रिय उतरिः । कह्यो पति चलिए घरहि गहे कर से कर । सूरदास यह सब हित हारको रोप्यो द्वार शुभंग। तिकपलतर।।७०।कहाँ भयो मेरो गृह माटीको । होतो गयो गुपालहि भेटन और खर्चतंडुल गांठी कोविनु ग्रीवा कल सुभग न आन्यो होहुतो कमंडलु दृढ़ काठीकोोधुनो वाँस गत बुन्यो खटोला काहूको पलंग कनक पाटीको॥ नौतन षीरें दिकुयुवतीपै भूषण हुते न लोहू माटीको । सूरदास प्रभु कहा निहोरों मानतुरंक त्रास टाटीको ॥ ७१ ।। धनाश्री ॥कही केसे मिले श्याम संघाती। कैसे. गए सुकंत कौन विधि परसे हुते वस्तर कुचिलकुजाती ।। सुनि सुंदरि प्रतिहार जनायो हरि समीप रुक्मिणी जहाती । ऊभे मूठी लोनी तंदुलकी संपति संचित करीही थाती ॥ सूर सुदीनबंधु । करुणामय करत बहुतें जो श्रीनरिसाती।।७२॥विलावल। ऐसे मार्हि और कौन पहिचान । सुन सुंदरी -