पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८०

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दशमस्कन्ध१०-उत्तरार्ध (५८७) दीनबंधु विन कौन मिताई मानै ॥ कहां हम कृपण कुचील कुदरशन कहां वै यादवनाथ गुसाई । भेटे हृदय लगाइ अंक भरि उठि अग्रजकी नाँई । निज आसन वैठगरि परमरुचि निजकर चरण पखारे। पूँछी कुशल श्याम घन सुंदर सब संकोच निवारोलीन्हे छोरि चीरते चाउर करगहि सुख में मेले । पूरव कथा सुनाइ सूरप्रभु गुरु गृह वसे अकेले ॥ ७३ ।। रागधनाश्री ॥ हरि विन कौन दरि द्रहरै । कहत सुदामा सुन सुंदरि जिय मिलन नहरि विसरै । और मित्र ऐसे समया महँ कत पहिचा न करै । विपति परे कुशलात न बूझै वात नहीं विचरै । उठिकै मिले तंदुल हरि लीने मोहन वचन फरै । सूरदास स्वामीकी महिमा टारीनिधि नटरै७४और को जाने रसकी रीतिकहां हौं दीन कहां त्रिभुवनपति मिले पुरातन प्रीति । चतुरानन तन निमिप न चितवत इती राजकी नीति। मोसों बात कही हृदय की गए जाहि युगवीति । विनु गोविंद सकल सुख सुंदरि भुस पर कीसी भीति ।। हौं कहा कहाँ सूरक प्रभुके निगम करत जाकी क्रीति७॥गोपाल विना और मोहिं ऐसो कौन सँभारीहँसत हँसत हरि दौरि मिले सु उरते उर नहिं टार ॥ छीन अंग जीरन वस्त्र दीन मुख नि हारै। ममतन रज पथ लागी पीतपट सों झारै ।। सुखद सेन आसन दीनों सुहथ पाय पसारै। हरि हित हर गंग धरे पदजल शिरढारै ॥ कहि कहि गुरु गेह कथा सकल दुखनिवार । न्याय निज वयु सूरदास हरिजी ऊपर वै वारै ॥ ७६ ।। रागकेदारा ।। दान द्विज द्वारे आइ रहो हो । नाम सुदाम कहत नाथ जो दुखी आहि अतिगाढो । सुनतहि वचन कमलदल लोचन कमला दल उठि धाए । त्रिभुवन नाथ देखि अपनो प्रिय हितसों कंठ लगाए ॥ आदर करि मंदिर ले आने कनक पलँग बैठाए । कथा अनेक पुरातन कहि कहि गुरुके धाम बताए ॥ खइवेको कछु भाभी दीन्हों श्रीपति श्रीमुख बोले । फेंट ऊपरतें अंजुल तंदुल वलकरि हरिज़खोले ॥ दुइ मूठी तंदुल मुखमें ले वहुरो हाथ पसारयो । त्रिभुवन देकार कह्यो रुक्मिणी अपुनो दान निवारयो । विदा कियो पहुँचे निजनगरी हेरत भवन न पायोमंदिर रही नारि पहिचान्यो प्रेम समेत बुलायो॥ दीनदयालु देवकीनंदन वेद पुकारत चारो। सूर सु भेटि सुदामाको दुख हरि दारिद्र मिटारो ॥ ७७॥ श्रीकृष्ण दारका गमन हेतु पंथीमति बजनार वदति॥ मलार ॥ तवते बहुरि न कोऊ आयो । उहै जु एकवेर उधोसों कछु संदेशो पायो।छिन छिन सुरति करत यदुपतिकी परत न मन समुझायो। गोकुलनाथ हमारे हितलगि लिखिहू क्यों न पठायो । यहै विचार करहु :धौं सजनी इतौ गहर क्यों लायो।सूरश्याम अब वेगि नमिलहू मेपनि अंबर छायो७८॥गौरी॥बहुरयो ब्रज बात न चाली। वे हैं जु एक वेर ऊधो कर कमलनैन पाती दैघाली ॥ पथिक तुम्हारे पाइन लागति मथुरा जाउ जहां वनमाली । कहियो प्रगट पुकार द्वार है कालिंदी फिरि आयो काली ॥ तबहूं कृपाहुती नँद नंदन रचि रचि रसिक प्रीति प्रतिपालीमाँगत कुसुम देखि ऊंचे द्रुम लेव उछंग गोद करि आली॥ जब वह सुरति होत उर अंतर लागति काम वाणकी भाली । सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरत उरह शूल अति शाली ७९ ॥धनाश्री। तुम्हरे देशका गरम सिखूटी। भूख प्यास अरु नींद गई सब हरि विनं विरह लयो तनुटूटी ।। दादुर मोर पपीहा बोले अवधि भई सब झूठी। हम अपराधिनि मर्म न जान्यो अरु तुमहूते तूटी ॥ सूरदास प्रभु कबहुँ मिलहुगे सखी कहत सब झूठी ॥८॥ अध्याय ॥ ४२ ॥ कुरुक्षेत्र यशोमति गोपी मिलन ॥ पथिक कहियो ब्रजजाइ सुने हरि जात सिंधु तट । सुनि सब अंग भये सिथिल गयो नहिं वज्रहियो फट.॥ नर नारी घर घर सबै इह करति विचारा। | मिलिहें कैसी भांति हमैं अब नंदकुमारा ॥ निकट वसत हुती अस-कियो अब दूर पयाना। विना || -