पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८२

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दशमस्कन्ध१०-उत्तरार्ध (९८९) - विह्वल भई गोपी नैनन वर्पत मेहु।।९०॥ मलार ॥ कैसे बनत इहि ब्रज हरिको आवन । कहियत है मधुवनते सजनी कहूं कान्ह कियो दूरि गवन ॥ निकट वसत मतिहानि भई हम मिलिहूं न आई सुत्यागि भवन । अब अपने यदुकुल समेतले दूरि सिधारे जीति जवन।।अगम सुपंथ दूरि दक्षिणदि शितहँ सुनियत सखी सिंधुलवनासूरदास तरसत मन निशि दिन यदुपाते लोलैजाइ कवन ॥९॥ ॥धनाश्री|सुनियत कहुँ द्वारका बसाई । पश्चिम देश तीर सागर के कंचन कोट गोमती सो खाई ॥ पंथ न चलत संदेश न आवत उहाँ लगि नर कोऊ नहिं जाई शत योजन मथुरा हूते कहियत यह हम सुधि निगमहू पाई ॥ वन उपवनजमेन मंदिर छवि कोकिल कीर हंस ध्वनि लाई। द्वारपाल चातक द्रुम सुपचान माँझ कोट निधि पाई ॥ घोष ग्वाल पशुपाल अधम कुल ईश एकको कौन सगाई । सूरश्याम ब्रजवास विसारे वावानंद यशोदा माई ॥ ९२ ॥ मारू ॥ उडुपति सों विनवति मृगनैनी।तुम कहियत उडुराज अमृत मय तजि सुभाउ वर्पत कत वहनी। उमयापति रिपु अधिक दहतहै हार रिपु प्रीतम सूखत तौनी । छपा न छीन होत सुन सजनी भूमि डसन रिपु कहा दुरोनी ॥ श्याम संदेश विचार करतहै कहारहे हरि छाइ वछोनी । सुरश्याम विनु भवन भयानक जो अति रहति गोपालकी अवनी ॥९३॥ रागकेदारा ॥ दधिसुत जातिही वहि देश । द्वारका में श्यामसुंदर सकल भुवन नरेश ॥ परम शीतल अमृतदाता करतहै उपदेश श्यामसुंदर वियोगिनीको लेहु यह संदेश । नंदनंदन जगतवेदन धरे नटवर भेष । काज अपनो सारि वामी रहे जाइ विदेश ॥ भक्त वत्सल विरद तुमरो मोहिं इह अंदेश ।अबकी वेर तुम अपनो मिलहु कृपाकरि कहैं सूर सुदेश९४ामलार। वीर वटाऊ पाती लीजो । जब तुम जाहु देश द्वारका हमरेइ लाल गोपालहि दीजो ॥ रंगभूमि रमणीक मधुपुरी वारि चदाइ कहो दह कीजो । खारि समुद्र छाँडि किनआवत निर्मलजल यमुनाको पीजो ॥ या गोकुलकी सकल मालिनी देत अशीश बहुत युग जीजो । सूरदास प्रभु हमरेकोते नंदनंदनके पाँइ परीजो ॥ ९५ ॥ सारंग ॥ हो तो आइ मिलत गोपालहि । सिंधु धरनि यह जुगुत न तेरी दुख दीनो ब्रजबालाहि ।। कहा करों पट नील पीत वर दुइते भये भुज चारि । बहु सुख कहा जु तव मन हो तो भेटत श्याम मुरारि ॥ संतत सूर रहत पति संगम सब जानति रुचिजीकी । तू क्यों नहीं धरति या भेषहि जोपै मुक्ति अतिनीकी ॥ ९६॥ मलार ॥ श्यामविन भई शरदनिशि भारी । हमैं छोडि प्रभु गये द्वारका व्रजभूमि कैसे विसारी । निर्मल जल यमुनाको छाँड्यो सेवत समुद्र जल खारी । कहियो जाइ पथिक जैसे आवें चरणनकी बलिहारी ॥ अवला कहा योग कर जाने वनवासी जो विसारी। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको रटत राधिका प्यारी।।९७॥ मलार ॥ ब्रजपर मदर करत है काम। कहियो पथिक,जाइ श्यामसों राखहि आइ आपनो धाम । जलधि कमान वारि दारूभरि तडित पलीता देत । गर्जन औ तर्पन मानो गो पहरकमें गढ़ लेत ॥ लेहु लेहु सब करत बंदिजन कोकिल चातक मोर । दादुर नगर करि जीवनढोवा अलग विलग चहुँ ओर ॥ ऊधो मधुप ज़सूस देखि कर कह्यो लुटाऊं धीरजपारन । रखिवे होइ तौ आनि राखिये सूर लोक निज जारना॥९८॥मलार ।। ब्रजपर बहुरोलागे गाजन । ज्यों क्योहू पति जात पडेकी मुख न देखावत लाजन ॥ चहुँदिशिते दल बादल उमडे सूने लागे वाज़न । घोपके लोग कान्ह बल तिन अब जित कित लागे भाजन ॥ आपुन जाइ द्वारकाछाये लागे श्याम विराजन । सूरदास गोपी क्यों जीव विखरे हरिजी साजन ॥९९॥ रागमारू ॥ अब मोहिं निशि देखत डरलागे । बारवार अंकुलाइ देहते निकास -