पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८३

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(६९०) सूरसागर। ... निकसि मन भाग ॥ प्राचीदिशा पेखि पूरणं शनि लै आयो तनतातो । मानहु मदन मदन विरहि निको करि लीनी रिसरातो ॥ भ्रुकुटी कुटिल कलंक चाप मानो अति रिसिसों शरसाधे । चहुँघा. किरनि पसारे पासिनि हठिकर योगिनि वांधे ॥ सुनि शठसहै प्राणपति मेरो जाको यश जग जानै । सूरसिंधु बूडत ते राख्यो ताहू कृतहि नमानै॥१०॥ रुक्मिणि वचन श्रीभगवान मति॥धनाश्री ॥ रुक्मिणि बूझतहै गोपालाह। कहौ बात अपने गोकुलकी केतिक प्रीति व्रजवालहिं ।। कहा देखि रीझे राधासों चंचल नैन विशालहिं । तब तुम गाय चरावन जाते उरधरते वनमालहि ॥ इतनी सुनत नैन भरि आये प्रेमनंदके लालहि । सूरदास प्रभु रहे मौनद्वै घोप वात जनि चालहि ॥१॥ धनाश्री ॥ रुक्मिणि मोहिं निमेष न विसरत वै व्रजवासी लोग । हम उनसों कछु भली नकीनी निशि दिन मरत वियोग। यदपि कनकमय रची द्वारका सखी सकल संभोग। तदपि मन जो हरत वंसीवट ललिताके संयोग ॥ मैं उधो पठयो गोपिनपै देइ संदेशो योग । सूरदास देखि उनकी गति किन्ह उपदेशे योग ॥ २॥ मलार || रुक्मिाण मोहिं ब्रज विसरतु नाहीं । वा क्रीडा खेलत यमुनातट विमल कदमको छाहीं । गोपवधूकी भुजा कंठ धरि विहरत कुंजन माहीं। अनेक विनोद कहांलों वरणौं मोमुख वरणिनजाइ ॥ सकल सखा अरु नंद यशोदा वे चितते नट राहीं। सुत हित जानि नंद प्रतिपाले विछुरत विपति सहाहीं ॥ यद्यपि सुखनिधान द्वारावति तउ मन कहुँ न रहाहीं।सूरदास प्रभु कुंजविहारी सुमिरि सुमिरि पछिताहीं॥३॥धनाश्रीरुक्मिणि चलहु जनम भूमि जाहीं। यदपि तुम्हारो हतो द्वारका मथुराके सम नाहीं ॥ यमुनाके तट गाइ चरावत अमृतजल अचवाहीं । कुंजकेलि अरु भुजा कंधधरि शीतल द्रुमकी छाहीं ॥ सरस सुगंध मंद मल यागिरि विहरत कुंजन माहीं।जो क्रीडा श्रीवृंदावनमें तिहूंलोकमें नाहीं।।सुरभी ग्वाल नंद अरु यशु मति मम चितते नटराही।सूरदास प्रभु चतुर शिरोमाणि तिनकी सेवा कराही॥ ४॥ श्रीकृष्णकुरुक्षेत्रआंब न सारंगाब्रजवासिनको हेतु हृदय में राखि सुरारी । सव यादवसों कह्यो वैठिकै सभा मझारी॥वडो पर्व रविगहन कहा कहों तासु बड़ाई । चलौ सवै कुरुक्षेत्र तहां मिलि न्हैये जाई ॥ तात मात निज नारिलै हरिजी सव संगा। चलेनगरके लोग साजि रथ तरल तुरंगा॥ कुरुक्षेत्रमें आइ दियो इक दूत पठाई। नंद यशोमति गोपी ग्वाल सब सूर बुलाई॥ ॥ सखीवचन राधिकामतिशकुनविचार ।। सारंग ।। वायस गहगहात शुभवाणी विमल पूर्वदिशिवोली। आजुमिलाओ.श्याम मनोहर तू सुनु सखी राधिके भोली।कुच भुज अधर नयन फरकत हैं विनहि वात अंचल ध्वजडोली। सोचनिवार करो मन आनंद मानो भाग्य दशा विधि खोली।।सुनत सुवचन सखीके सुखते पुलकित प्रेम तर कि गई चोली।सूरदास अभिलाष नंदसुत हरपी सुभग नारि अनमोली॥६केदारोगामाधवजी आवन हार भये । अंचल उडत मन होत गहगहो फरकत नैन खये। देही देखि सोच जिय अपने चितवत सगुन दये । ऋतुवसंत फूली द्रुमवल्ली उलहेपात नये ॥ करति प्रतीति आयु आपुनते सवन शृंगार ठये।सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकार अवधिहु पूजिगए ॥७॥श्रीभंगवानं दूत वचन नंद यशोमति मति॥ धनाश्री ॥ हौं इहां तेरेही कारण आयो । तेरीसों सुन जननी यशोदा हठि गोपाल पठायो ।कहा भया जो लोग कहतहैं देवकी माता जायो ॥ खान पान परिधान सबै सुख तेही लाड लडायो । इतो हमारो राज द्वारका मो जी कछू नभायो । जब जब सुरति होत उहि हितकी विछुर वच्छ ज्यों धायो । अब वेहार कुरुक्षेत्रमें आये सो मैं तुम्हें सुनायो । सव कुल सहित नंद । सूरजप्रभु हितकरिवहां बोलायोदाराधिकावचन सखीमति॥सारंगाराधा नैन नीर भरिआईकवधौं श्याम