पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८४

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दशमस्कंध १०-उत्तरार्ध (५९१) मिलें सुंदर सखी यदपि निकटहै आई।कहाक केहिभांति जाउँ अब पेषहि नहिँ तिन पाई।सूर श्या म सुंदर घन दरशेतनकी ताप नशाई ॥९॥सखीवचनराधिकापति॥ केदारोग।अब हरि आइहैं जिन सोचौमुन विधु मुखी वारि नयनन ते अब तू काहे मोचै ॥ सत्य जानि चित चेत आनि तू अब नख क्यों तनु नोचौमदन मुरादि सँभारि सुमिरि सुख तुम समीपको वोच।।लैलेखनि मसि करिकरिअपने लिखि संदे श छांडि संकोचे।सूर सुविरह जनाउ करत कित प्रवल मदन रिपु पोचे।॥१०॥ गोपी संदेश श्रीभगवान मति ॥ सारंग ।। पथिक कहियो हरिसों यह बात । भक्तवछल है विरद तिहारो हम सब किये सनाथ ॥ प्राणहमारे संग तुम्हारे हमहू हैं अब आवत । सूर श्याम सों कहत संदेशो नयनन नीर बहावत ॥११॥ कुरुक्षेत्र श्रीभगवान मिलन ॥ सारंग ॥ नंद यशोदा सब ब्रजवासी। अपने अपने शकट साजिकै मिलन चले अविनाशीकोउ गावत कोउ वेणु वजावत कोउ उतावल धावत। हरि दरशन लालसा कारन विविध मुदित सब आवत ॥ दरशन कियो आइ हरि जीको कहत सपन की साँची । प्रेम मानि कछु सुधि न रही अंग रहे श्याम रंग राची ॥ जासों जैसी भांति चाहिये ताहि मिल्यो त्यों धाइ । देश देशके नृपति देखि यह प्राण रहे अरगाइ । उमग्यो प्रेम समुद्र दशहुँ दिश परमिति कही न जाइ।सूरदास इह सुख सो जाने जाके हृदय समाइ॥१२॥कान्हरोतिरी जीवनि मूरि मिलहि किन माई । महाराज यदुनाथ कहावत तवहीं हुते शिशु कुँअर कन्हाई।पानि परे भुज धरे कमल मुख पेपत पूरव कथा चलाई । परमउदार पानि अवलोकत हीन जानि कछु कहत न जाई॥फि रिफिरि अब सन्मुखही चितवीत प्रीति सकुच जानी न दुराई।अब हँसि भेटहु कहि मोहिं निज जन | वाल तिहारो हो नंद दोहाई । रोम पुलकि गदगद तनु तिहि छिन जलधारा नैनन वरपाई । मिले सुतात मात बंधू सब कुशल कुशल कार प्रश्न चलाई।आसन देइ बहुत करि विनती सुत धोखे तब बुद्धि हेराई।सूरदास प्रभु कृपाकरी अब चितहि धरे पुनि करी बड़ाई॥१३॥ राग मलार ॥ माधव या लगि है जग जीजतु । जाते हरिसों प्रेम पुरातन बहुरि नयो कार कीजतु ।। कहँ रवि राहु भयो रिपु मति रचि विधि संयोग बनायो । उहि उपकार आज यहि औसर हरि दरशन सचुपायो।कहां वसहिं यदुनाथ सिंधु तट कहँ हम गोकुल वासी। वह वियोग यह मिलनि कहां अब काल चाल औरासी। सूरदास मुनि चरण चरचि करि सुरलोकनि रुचि मानी । तव अरु अब यह दुसह प्रमा नी निमिपो पीर न जानी ॥१४॥ श्रीभगवान रुक्मिणि मत्युतर ॥ कान्हो ॥ हरि जूसों बूझत है रुक्मिणि इनमें को वृषभानु किशोरी । वारेक हमैं देखावो अपने बालापनकी जोरी ॥ जाको हेतु निरंतर लीये डोलत ब्रजकी खोरी।अति आतुर होइ गाइ दुहावन जाते पर घर चोरी ॥ रजनी सेज सु करि सुमननकी नवपल्लव पुट तोरी । विन देखे तोके मन तरसै छिन वीते युग मोरी।सूर सोच सुख कार भरि लोचन अंतर प्रीति न थोरीसिथिल गात मुख वचन फुरत नहिं है जो गई मति भोरी। | ॥१६॥धनाश्रीवूझति है रुक्मिाणि पिय इनमें को वृपभानु किशोरीनिक हमैं देखरावहु अपनी बाला पनकी जोरी॥ परमंचतुर जिन कीने मोहन अल्प वैसही थोरी। बारते जिहि यह पढ़ायो बुधि बल कलविधि चोरी ॥ जाके गुणगनि गुथति माल कबहूँ उरते नहिं छोरी । सुमिरन सदा वसतही रसना दृष्टि न इत उत मोरी । वह देखो युवति वृंद में ठाढी नीलवसनं तनुगोरी । सूरदास मेरो मन वाकी चितवन देखि हरयोरी ॥ १६॥ मारू ॥ गोविंद परम कृपा मैं जानी। निगम जु कहत। दयालु शिरोमणि सत्य सुनिधि वानी। अब ये श्रवन वरन कर स्वारथ तुम जुदरश सुख दीनो। या फल योग सुकृत नहिं समुझत दीन देखि हित कीनो ॥ यह दिन धन्य धन्य जीवन जस धन्य