पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८५

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(६९२) सूरसागर। ... भाग्य प्रभु पाये। शिव मुनि मन दुर्लभ चरणांवुन जनहि प्रगट परसाए. ।। हरपित सुजन सखा त्रिय बालक कृष्णमिलन जियभाये। सूरदास सकल लोचन जनु शशि चकोर कुलपाए ॥ १७॥ सारंग ॥ हरिजी इते दिन कहाँ लगाये । तवाहि अवधि मैं कहत न समुझी गनत अचानक आये। भली करी जु अबाहे इन नैनन सुंदर चरण दिखाये । जानी कृपाराज काजहुँ हम निमिष नहीं विसराए । विरहिनि विकल विलोकि सूरप्रभु धाइ हृदय करलाए। कछु मुसुकाइ कह्यो सारथि सुन रथके तुरंग छुराए ॥ १८॥ मलार ॥ हरिजू वै सुख बहुरि कहां । यदपि नैन निरखत वह मूरति फिरि मन जात तहां ।। मुखमुरली शिरमोर पखौवा गर घुघुचनिको हार । आगे धेनु. रेनु तनु मंडित चितवन तिरछी चाल।राति दिवस अंग-अंग अपने हित हँसि मिलि खेलत खात । सूर देखि वा प्रभुता उनकी कहिः नहिं आवै बात ॥ १९ ॥धनाश्री ॥ रुक्मिणि राधा ऐसे बैठीं। जैसे बहुत दिननकी विछुरी एक वापकी बेटी.येक सुभाउ येकले दोऊ दोऊ हरिको प्यारी। येक प्राण मन एक दुहुँनको तनु करि देखिअत न्यारी ॥ निज मंदिर लै गई रुक्मिणी पहुनाई विधिः ठानी। सूरदासप्रभु तहँ पग धारे जहां दोऊ ठकुरानी ॥ २०॥ धनाश्री ॥ राधा माधव भेट भई। राधा माधव माधव राधा कीट भंग गति होइ जोगई ॥ माधव राधाके रंग राचे राधा माधव रंगरई । माधो राधा प्रीति निरंतर रसना कहिनगई ॥ विहाँसि कह्यो. हम तुम नाहं अंतर यह कहि ब्रजपठई। सूरदास प्रभु राधा माधव ब्रजविहार नित नई नई ॥२१॥ धनाश्री ॥ :राधावचन सखी. मति ॥ करत कछु नाही आजु बनी । हरि आए हौं रही ठगीसी जैसे चित्तधनी ॥ आसन हर्षि हृदय नहि. दीन्हो कमलकुटी अपनी । न्यवछावर उर अरव न अंचल जलधारा जो बनी ॥ कंचुकी ते कुचकलस · प्रगट टूटिनतरक तनी । अब उपजी · अतिलाज़ मनहिमन समुझत निजकरनी ॥ मुख देखत. न्यारेसी रहिहौं विनु बुधिमति संजनी। तदपि सूर मेरी यह जडता मंगल मांझ गनी ॥ २२ ॥ भगवान वचन ब्रजवासी मति.॥ सारंग ॥ ब्रजवासिनसों को सबनते ब्रजहित मेरे। तुमसों मैं नहिं दूररहतहौं सबहिनके नियरे । भने मोहिं जो कोइ भनौं मैं तिनको भाई । मुकुरमांह ज्यों रूप आपनो आपुन सम दरशाई । यह कहिकै समदे सकल जन नयनरहे जल छाईसुरश्यामको प्रेम कछू मोपै कह्यो नजाई॥२३॥सारंगा सबहिनते सबहै जन मेरो। जन्म जन्म सुन सुबल सुदामां निवह्यो इह प्रण मेरो॥.ब्रह्मादिक : इंद्रादि आदिदै जानत बलि वसि केरो । यक उपहास त्रास उठि चलते तजिकै अपनों खेरोः॥ कहा भयो जो देश द्वारका कीन्हों दूरि बसेरो। आपुनहीं या ब्रजके कारण करिहौं फिरिः फिरि । फेरो। यहां वहां हम फिरत साधहित करत असाध अहेरो। सूर हृदय ते टरत न गोकुल अंग । छुअतही तेरो॥२४ ॥ वचन ब्रजवासी॥ सारंग ॥ हमतो इतनेहीं सचुपायो। सुंदर श्याम कमलदल ।। लोचनः वहुरो दरश देखायो ॥ कहा भयो जो लोग कहतहैं कान्ह द्वारका छायो । मुनि यह दशाः विरही लोगनकी उठि आतुर होइ धायो ॥ रजक धेनु गज केस मारिकै किया आफ्नो भायो महाराज होय मातु पिता मिलिं तऊ न ब्रजविसरायो ॥ गोपी गोप औ नंद चले मिलि.प्रेम समुद्र वहायो । येते मान कृपाल निरंतर नैननीर ढरिआयो। यद्यपि राज बहुत प्रभुता. सुनि हारि हित । अधिक जनायो । वैसहि सूर बहुरि नंदनंदनं. घर घर माखन खायो।।२६॥अध्याय ॥ ८३ ॥ अष्टनायिका दौंपदी प्रश्न॥राग विलावल | हरि हरि हरि सुमिरह दिनराति। नातरु. जन्म अकारथ जाति ॥ सौबात । नकी एक बात । हार हरि हरि सुमिरो दिन रात.॥ हरि कुरुक्षेत्र अन्हान सिधाये । तव सबः ।। - -