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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६९१

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(५९८)
सूरसागर।


धरो।अभय हमारे आश्रम करो ॥ दोष तुम्हारो है कछु नाहिं । तुमहिं पठायो है सुरनाहि ॥ इन्द्रहुको । कछु दूषण नाहीं । राजहेतु डरपत मन माहीं । उन कर जोर वनिती उचारी नारायण हरि हरि बनवारी ॥ उधरत लोग तुम्हारे नाम । क्यों करि मोह सके तुम काम ॥ जे न शरण प्रभु तुम्हरे करें । तिनको अंत राइ हम करें ।। और संभारि मनोरथ धरें । तें सब हमको अहनिशिंड ।। कहूं पुत्र मोह उपजावै । कहूं त्रियाके रूप लोभावै ॥ भूख प्यास होइ कबहुँ संतापैं। ऐसे विधि हम उनको व्या ॥ जो कोउ तुम्हरे शरन नआवै । सुख संसार सकल विसरावै ॥ तासो हमरो कछु नवसावै । होय चेत सो तुमपै आवै ॥ नारायण तहां प्रगट करी । इन्द्र अपसरा सो भग्गिरी । सहस अप्सरा सुंदर रूप । येक येकते अधिक अनूपाकाम देखि चकृत होइ गयो । रूपअवनि हम देख्यो नयोकौन जितै सवही इन माहि । इन सम इन्द्र लोक कोउ नाहि ॥ तव नारायण आज्ञा करी ॥ इनमें लेहु एक सुन्दरी ॥ पुनि प्रणाम हरिको तिन कीन्हीं नाम उर्वसी इक उनलीनी । सो सुरपतिको दीन्हीं जाइको सकल वृत्तांत सुनाइ ॥ पुनि भयो नारायण अवतारासूर कह्यो भागवत अनुसार ॥६॥ हंस अवतार वर्णन ॥ राग विलावल ॥ हरि हरि हारि हरि सुमिरन करो । हरि चरणाविद उर धरो । हरि ज्यों धरयो हंस अवतार । कहाँ सो कथा सुनो चितधार ॥ सनकादिक ब्रह्मा पै गयो नमस्कार कर पूँछत भये ॥ किधौ विषय को चित गहि रह्यो । की विषही में चितको गह्यो । नीर क्षीर ज्यों दोउ मिलि गये । न्यारे होत न न्यारे कये । हमतो जतन करी बहु भाइ । तुम अव कहो सो करें उपाइ ॥ ब्रह्माको उत्तर नहिं आयो। तब सनकादिक गर्व बढ़ायो । ज्ञान हमारो अतिशय जोइ । ब्रह्म रह्यो निर उत्तर होइ ॥ ब्रह्मा हरिपद ध्यान लगाय । तब हरि हंस रूप धरि आय ॥ सवहिन रूप देखि सुख पायो । सबहिन उठिकै माथो नायो । सनकादिकन करो या भाइ। हमको दीजै प्रभु समुझाइ ॥ को तुम क्यों करि इहां पधारे । परमहंस तव वचन उचारे।यह तो प्रश्न योग है नाहीं । एकइ आतम हम तुम माहीं ॥ जो तुम देह देखिकै पूछे । तोहू प्रश्न तुम्हारे छूछे ॥ पंचभूत ते सब तनु भए । कहा देखिकै तुम भ्रमि गए । यह कहि उनको गर्व निवारयो । बहुरो या विधि वचन । उचारयो । विषय चिंता दोङहै माया । दोऊ चपरि ज्यों तरुवर छाया। तरुवर डोले डोले सोई ॥ त्यों जिव लगि चित चेत नहोइ। वहुरिचित चेत विषे तनु जोवे । चित्त विषय सयोग तव होवै ॥ ऐसी भांति रहे दोउ गोइ । तिन्हें न्यारे कार सके न कोइ ॥ज्यों सुपने में सुख दुख जोइ । जानि सत्य राखै चित लोइ ॥ जव जाग तब मिथ्या जाने । ज्ञानी इनको नित यो मानै ॥ विषय चित्त दोऊ भ्रम जानो । आतमरूप सत्य कार मानो ॥ श्रवणादिक में चित्त लगावहु । प्रेम सहित मम । रूपहि ध्यावहु ॥ ऐसे करत विषयहू होइ । अरु मम चरण रहै चित गोइ ॥ जो ऐसे विधि साधन कर । सो सहजहि मम पद अनुसरे ॥ और जो बीचहि तनु छुटि जाय । तौल जन्म भक्त गृह आय ।। वहां हू प्रेम भक्ति को थान । पावै मेरो परम स्थान ॥ सनकादिकनसों कहि यह ज्ञान ।। परम हंस भये अंतर्ध्यान ॥ जो यह लीला सुनै सुनावै । सूर सो प्रेम भक्तिको पावै ॥ ६ ॥

इति श्रीमद्भागवते एकादशस्कंधे श्रीसूरसागरे सूरदासजी कृत सम्पूर्णम् ॥