पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६९३

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(६००) ..... .. मुरसागर।.. उड़ाइ ॥ अजामले सुत हित हरि भाष्यो। यमदूतनते तेहि हरि राख्यो । कलिमें राम कहे जो कोइानिश्चय भव जल तरिहै सोइ॥जबलगि बढे अधर्म अपारारहै विष्णुजसधर्म सत. हार ॥ तागृह संभल कलंको होइाकर संहार.दुष्ट नर लोइ।।पृथ्वी अकास तहां रहिनाइाराजदेहि जो कुंभ बैठाइ।। समष्टि होवे सब लोइ । दुष्ट भाव मन धरै नकोइ ॥ यो होइहै कलंकि अवतार कलिमें राम नाम आधार ॥ शुक नृप सों को जा परकार । सुर कह्यो ताही अनुसार ॥३॥राजा परीक्षित हरिपद माप्ति वर्णन ॥ राग बिलावल । हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हरि चरणार्विद उरघरो ॥ विनु हरिभक्ति मुक्ति नहिं होइ।कोटि उपाय करौ किन कोइारहट घरीज्योंजग व्यवहाराउपजत विनशत बारंवार॥ उत्पति प्रलय होत जा भाइ । कहाँ सुनो सो नृप चितलाइ ॥ राजा प्रलय चतुर्विधि होइ। आवत जात चहूं में लोइ ॥ युग परलय तो तुमसों कही । तीन और कहिवे को रही। चतु युगी बीत एकहत्तर । करै राज तब लगि मन्वतर ॥ चौदह मौन ब्रह्मा दिन माहि । वीतत तासों कल्प कहाहि ॥ रात होइ तव परलय होइ । निशि.मयोंदा दिन सम होई॥ प्रात भए जन ब्रह्मा जागे । बहुरो सृष्टि करन को लागै ॥ दिन सौ तीन साठ जब जाहि । सो ब्रह्माको वरष कहाहि ॥ बर्ष पचाश परारध गए । प्रलय तीसरी या विधि लए ॥ बहुरो ब्रह्मा सृष्टि उपावै । जब लौं पसरप दूजो आवै ॥ शत संवत भये ब्रह्मा मरे । महाप्रलय नित प्रभुजू करें ॥ माया माहिं नित्य ले पावै । माया हरिपद माहिं समावै ॥ हरिको रूप कह्यो नहिं जाइ । अलख अखंड सदा इक भा इ॥बहार जब हरिकी इच्छा होइ । देखै माया के दिशि जोइ॥ माया सब तवहीं उपजा । ब्रह्मा सों पुनि सृष्टि उपावै ॥ अबहन प्रलय सदा पुनि होइ । जन्मै मरै सवाई लोइ ॥ हरिको भने सो हरि पद पावै।जन्म मरन तेहि ठौर न आवै ।। नृप मैं तोहिं भागवत सुनायो । और तो हिय माहि बसायो मुक्ति माहिं संशय नहि कोइ। सुने भागवत में सोइ होइसप्तम दिवस आजु है राउ। हार चरणार्विद चित लाउ । इह अछेद अभेद अविनाशीः । सर्व गति अरु सर्व उदासी ॥ दृष्टिहि दृष्टि सोइ दृष्टि यार । काको दीखै को दिखहारि॥ हरि स्वरूप सोरतिहि विचारि। मिथ्या तनुको मोह पसारि ॥ नृप कह्यो तनुको मोह न कोई । याको जो भावे सो होइ ॥ मोहिं अवं सर्व ब्रह्म दरशावै । तक्षक भय मनमें नहिं आवै ॥ तुम प्रसाद मैं पायो ज्ञान । छूटि अमिथ्या देह अभिमान ।। अब मैं गहि हरिपद अनुराग। करिहौं मिथ्या तनुको त्याग ।। शुक जान्यो नृपको जो ज्ञान । आज्ञा करि कियो पयान। तक्षक नृप शरीरको डस्यो । तब तनु तजि हरि पदमें बस्यो । सूत शौनकनि कहि समुझायो। मैंहूता अनुसार सुनायो॥ अंत समय हरिपद चित लावै । सूरदास सो हरिपद पावै ॥ ४॥ जन्मेजय कथा ॥ राग विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो । हार चरणाविद उर धरो ॥ जन्मेजय जब पायो राज । एकबार निज सभा विराज ॥ पिता वैर मनमें सो विचारः। विप्रनसों यों कह्यो उचार॥ मोको तुम अब यज्ञ करावहुः । तक्षक कुटुंब समेत जरावहु ॥ विप्रन सेत कुली. जब जारी। तब राजा तिनसों उच्चारी॥ तक्षक कुल समेत तुम जारौ। कयो इन्द्र निज शरन उबारौ ॥ नृप कह्यो इन्द्र सहित तेहि जारौ । विप्रनहूं इह मतो विचारो॥ आसतीक तेहि अवसर आयो । राजासों यह वचन सुनायो । कारण करनहार भगवान । तक्षक डसन हार मति जान॥ बिनु हरि आज्ञा द्वितिय न बात । कौन सकै काहू संताप ॥ हरि जो चाहे त्योंही होई । नृप तामें संदेह नकोइ॥ नृपके मन यह निश्चय आयो। यज्ञ छांडि हरिपद चितलायो ॥ सूत शौनकाने कहि समुझायो । सूरदास त्योंहीं करिगायो॥५॥ .: ... इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कंधे श्रीसूरसागरे श्रीसूरदासकृतसम्पूर्ण ॥ .. • इति श्रीसूरसागर सम्पूर्ण ॥