पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७०

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- - - - सूरसागर-सारावली। (१७) सुरभी मालजिवाये । कनक कमलके बोझ शीशधरि मथुरा कंस पठाये ।। ४७३ ॥ दावानलको पान कियो मुख गोपनरक्षा कीनी । वो सुऋतु देख वृन्दावन कीड़ाकी सुधिलोनी ॥ ४७४ ॥ वेणु बजाय विलास कियोवन धौरी धेनु बुलावत । वरहापीड़ दाम गुलामणि अद्भुत भेप बनावत। ॥१७६ ॥ प्रातकाल स्नान करनको यमुना गोपि सिधारी । लकै चीर कदम्ब चढ़े हरि विनवत हैं ब्रजनारी ॥ १७६ ॥ देवरदान संग खेलनको शरद रेनि जब आई। रचिके रास सवन सुख दीन्हों रजनी अधिक कराई ।। ४७७ ।। गोवर्धन धरि सब व्रज राख्यो मघवामान मिटायो । नारायण प्रकटे सवजाने जोइ गर्गमुनिगायो ।। ४७८॥ धेनुक और प्रलम्ब सँहारे शंखचूड वध कीन्हों। करिके चरण परसप्रभु वनमें व्याल अभयपद दीन्हों। ४७९ ॥ नानाविधि क्रीडा हार कीन्हीं ब्रजवासिन सुखपायो । सबहिन यह मांग्यो विनतीकर हरि वैकुंठदिखायो॥ ४८० ॥ अभयदान दीन्हों मघवाको नंदरायको राख्यो । वरुणलोकमें गये कृपाकरि विविध वचन उनभाख्यो॥ ॥४८१॥ यज्ञ करत ब्राह्मण मथुराके ओदन श्याम मँगायो । उननहिं दियो नारि पठये तवउन सुनि सुखपायो॥ ४८२ ॥ पटरस थार संवार साजसों सवही हरिपै आई। कियो मनोरथ पूरण उनको निर्भय कार जुपठाई ।। ४८३॥ व्योमासुर केशी सब मारे अरु अरिष्ट वध कीनो। क्रीड़ा बहुत करी गोकुलम भगतनको सुखदीनो ॥ १८४॥ नारद आय कहेउ नृपसों यह कौन नींद तू सोवे । तेरो शट प्रकट गोकुलमें गुप्त न जानत कोवे ।। ४८५ ॥ यह सब देव प्रकट भये अजमें जहँ तहँ ठोरहि ठर । उग्रप्तेन वसुदेव देवकी यादव जे सर और ।। १८६ ।। नंदगोप वृपभान यशोदा सबाहि गोप कुल जानों । करो उपाय बचो जो चाहो मेरो वचन प्रमानो ॥ ४८७॥ यह सुनि कंस सवनको बन्धन दीनोहै त्यहिकाल। श्रीवमुदेव देवकी निज पितु बन्धन दियो विशाल॥ ॥ ४८८ ॥ फिरि नारद गोकुल हो आये हरि चरणन शिरनाये। स्तुति करी बहुत नानाविधि मधुरे बीन बजाये ॥ १८९ ॥ हरि कछु इन उत्तर नहिं दीनों फिरगये अपने धाम । वल मोहन सब सखा वृन्द ले क्रीडत गोकुल ग्राम ॥ ४९० ॥ बल अक्रूर कंस यह भाष्यो सुन सुफलकसुत बात । राम कृष्णको लायो मधुपुर विलमकरो जनि जात ॥ ४९१ ॥ तव रथबैठ चले सुफलक सुत संध्या गोकुल आये। पंडे में हरिचरण धूरिले अपने अंग लगाये ।। १९२ ॥ मिले नंद बलदेव रोहिणी और यशोदारानी । पूजा करि पधराय सदन में भोजनकी विधि ठानी ॥ ४९३ ॥ भोजन करिअर जो वठे सव वृत्तांत सुनाये । धनुपयज्ञ कीन्हों नृपजूने सबको वेग बुलाये ॥ १९४॥ चले महर ब्रजराज साजले कोतुक देखन आज । राम कृष्ण दोउ आगे लकं सकल घोप शिरताजा ॥ ४९५ ॥ मारगमें कालिंदीके तट कीन्हों जल असनान । निज वैकुंठ दिखायो जलमें दीन्हों पूरण ज्ञान ।। १९६॥ करि वंदन इरिके चरणनको पुनि अक्रूर यह भाख्यो । तुम यदुकुलप्रकटे पुरुपोत्तम भक्तनको प्रणराख्यो । १९७॥ मथुरा आयरहे उपवनमें नंदराय सब गोप । रामकृष्णके चरण परसते अधिक मधुपुरी ओप ।। ४९८॥ गये नगर देखनको मोहन बलदाऊ ले साथ । पुरकुलवधू झरोखन झांकत निरख निरख मुसक्यात ॥ १९९ ॥ मारगमें यकरज संहारयो सहि वसन हार लीन्हें । बालक मिल्यो सवहि पहिराये सवहिनको सुख दीन्हे ॥ ५० ॥ आगे मिल्यो सुदामामाली फूल माल पहिराई । निर्भयदान दियो हरि तिनको अविचल भक्ति दृढ़ाई ॥५०१॥ कुब्जा पसि चन्दनले आई मारग देखन आई । हार माँग्यो उनलेजु समर्यो मन वांछित फल पाई ॥ ५०२ ॥ दियो वरदान भवन आवनको तहाते चले कन्हाई । मथुरानगर देख मनमोहन ।