पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७२

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सूरसागर-सारावली। देनते उग्रसेन बैठायो ॥६३३॥ राम कृष्ण घरआये जाने पुरवासिन सुखपायो। मंगलचारभये घर घरमें मोतिन चौक पुरायो॥५३४॥ तब हरिमात पिता पै आये दोउ भाइन शिरनायो। वन्धन छोर विनय बहु कीन्हें तुम हम बिन दुखपायो॥५३५॥ फिर वसुदेव बसे अपने गृह | परम रुचिर सुखधाम । राम कृष्णको लाड लडावत जानत नहिं दिन याम ॥५३६॥ गर्ग बुलाय | वेदविधि कीन्हों शुभ उपवीत करायो । विद्या पढ़न काज गुरु गृह दोउ पुरी अवन्ति पठायो॥ ॥५३७॥ राजनीति मुनि बहुत पढाई गुरु सेवा करवाये । सुरभी दुहत दोहनी मांगी बाँहपसार देवाये ॥६३८ ॥ गुरु दक्षिणा देन जव लागे गुरुपत्नी यह मॉग्यो । बालक बाउ सिन्धुमें हमरो सो नितप्रति चितलाग्यो ॥५३९॥ यह सुनि श्याम राम दोऊ मिलिं गये जलधिके बीच । परपंचानन शंख तहँ लीन्हों मारि असुर अति नीच ॥५४०॥ यमपुर जाय शंखध्वनि कीन्हों यमराजा चलिआयो । चरणधीय चरणोदक लीन्हों वालक दे शिरनायो ॥५४१ ॥ लै बालक गुरु आगे धरिकै राम कृष्ण सुखराशी। आज्ञालै मधुपुरी सिधारे परब्रह्म अविनाशी ॥९४२॥ क्रीडाकरत विविध मथुरामें अक्रूर भवन सिधारे । स्तुति करी बहुत नानाविधि निर्भयकर शिर धारे॥५४३ ॥ कुविजाके घर आपु पधारे सवै मनोरथ कीनो । उधोभक्त संगलेके अति आनंद भक्तन दीनो॥५४४ ॥ उद्धव भक्त बुलाय संगले हरिइकांत यहभाख्यो । ब्रजवासी लोगनसों मैं तो अन्तरकछू न राख्यो । ६४५॥ सुरगुरु शिष्य बुद्धिमें उत्तम यदुकु लकहत प्रमान । मन्त्री भृत्य सखा मों सेवक याते कहत सुजान ॥५४६॥ मोकू लाडलडायो उन जो कह लगि करें बडाई । सुनि ऊधो तुम समझत नाहिंन अब देखोगे जाई॥५४७॥ वेग जाव ब्रजमों आज्ञात ब्रजवासिन सुखदेही । चरणरेणु शिरपरि गोपिनकी तुमहुँ अभयपद लेहो ॥५४८॥ गोपिन सो विनती करि कहियो नितप्रति मन सुधि कारया। विरह व्यथा बादै जब तनुमें तब तब म्वहिं चितधरियो ।। ५४९ ॥ पाती लिखी आपकर मोहन ब्रजवासी सबलोग । मात यशोदा पिता नन्दनू बाब्यो विरह वियोग ॥५५॥धौरी धूमरि कारी काजर मेन मजीठी गाय । ताको बहुत राखियो नीके उनपोष्यो पयप्याय ॥१५१॥ वनमें मित्र हमारे यक हैं हमहींसों है रूप । कमल नयन घनश्याम मनोहर सब गोधनको भूप ॥ ५५२ ॥ ताको पूजि बहुरि शिरनइयो अरु कीजो परणाम । उन हमरो ब्रजसवहि बचायो सबविधि पूरे काम ॥ ५५३ ॥ आज्ञालै ऊधो श्रीपतिकी चलेवेग नँदग्राम । पुष्करमाल उतार हृदयते दीनीसुन्दरश्याम ॥ ६९४ ॥ पीताम्बर अपनो पहि रायो श्रुतिकुण्डलपहिराये । अपने रथ बैठाय प्रीतिसों उद्धव ब्रज पधराये ॥५५५ ॥ दिनमणि अस्तभये गये गोकुल नंदरायसों भेटे । बलमोहन दोउ देख माधुरी परम विरहदुख मेटे ॥५६॥ मिले नन्द बलराम कृष्ण दोउ हैं नीके यह भाख्यो । मारो कंस भली सब कीन्हीं यादवकुल सब राख्यो ॥५५७॥ पूंजाकरि भोजन करवायो उद्धव संत सरायो । सोवत निशा नेक नहिं पाये रामकृष्ण गुणगायो ॥६५८ ॥ यशुदा विकल बात पूछतिहै नयनननीर प्रवाह । तनमनमें अतिही दुखवायो अति आतुर जनुदाह ॥५५९॥ बातें करत शेषनिशिआई उद्धवगये सनान । सुमिरणं कर फिर ब्रजमें आये गोपिन देखे आन ॥५६०॥ उद्धव देखि सकल गोपिनने कीन्हों मन अनुमान । रथको देखि बहुत भ्रमकीन्हों धोंआये फिर कान ॥५६॥ तव यक सखी कहे सुनरीतू सुफलकसुत फिरि आयो । प्राणगये लै पिंड देनको देहलेन मनभायो । ५६२ ॥ इतने ॥ देख. कृष्ण अनुचर' मुख उद्धव यह सब जानी । उद्धव कियो प्रणाम संबनको विनयकियो