पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७३

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... ..... सूरसागर-सारावली। ... (२०) मृदुवानी ॥ ५६३ ।। भलीकरी तुमआये उद्धव लाये हरिकी पाती । जादिनते हरि गोकुलछाड्यो । हमपर विरह वराती ॥ ५६४ ॥ इतनेमांझ मधुप यक देख्यो आय चरण लपटायो। ताको देखें: कहत उद्धवसों हरि गोकुल विसरायो ॥ ५६६ ॥ रे मधुप कि तबके बन्धू चरण परस जिन करि हौ । प्रियाअंक कुंकुम कर राते ताहीको अनुसरिहौ ॥५६६ ॥ अधर सुधारस संकृतपानदै कान्ह भये अति भोगी। विजय सखा को सखी कहतहै तासों रहत सँयोगी॥५६७ ॥ तीनलोक नारीको कहियत जो दुर्लभ बलवीर । कमलाहू नित पायपै लोटत हमतो हैं आभीर ।। ५६८.। पहिलेही इन हनी पूतना बाँधे वलिको दान । शूर्पणखा ताड़का सहारी श्याम सहज यह वान ॥५६९॥ याकी कथा सुनी जिन श्रवणन वनविहंग भये योगी। मांगतभीख फिरत घर घरही सुजन कुटुम्ब- वियोगी॥५७०॥फिर हरि आय यशोदाके गृह रिंगन लीला करिहैं । माग्यो चन्द्र आर जब कीन्हीं उन वातन चितधरिहैं ॥ ६७१ ॥ बहुत दनुज संहार श्यामधन ब्रजकी रक्षाकरिहैं । यमलार्जुन विटपउपारे कालीको विषहरिहैं ॥ २७२ ॥ वेणुवजाय रास वन कीन्हों अति आनंद दरशायो । लीला कथत सहसमुख तोऊ अजहूं पार न पायो॥९७३ ।। महाप्रलयके मेष पठाये सुरपति कीन्हों कोप । छिनहीमांझ गोवर्धन धारो राखिलिये सब गोप॥९७४ ॥ ऐसे बहुत चरित्र कान्हके वरणि कहत नहिआ। उद्धव तुम नयनन नहिं देखो तातेभेद न पावै ६७५ ॥ तव उद्धव कहेउ धन्य धन्य तुम धन्य धन्य व्रजनार । तुम्हरे सुवस सदा हरि खेलो ब्रजमें करत विहार ॥६७६॥ तुम्हरी चरण कमल रज कारण तपकीन्हों चतुरानन । रमाशेप पुन किनहुँ नपायो सो देखियत वृन्दावन ॥६७७॥ गुल्म लतामें जन्ममागि तव विधिसों गोद पसारी। उद्धव कहत सदा म्बहि दीजै चरण रेणु व्रजनारी ॥६७८॥ एकरूप है रहे वृन्दावन गुल्मलता कर वास । वज्रनाभ उप देश कियो जिन पूरण केल प्रकास ॥६७९ ॥ एकरूप उद्धव फिर आये हरिचरणन शिरनायो। कह्यो वृत्तान्त गोप वनितनको विरह न जात कहायो॥५८०॥ म्बहिं खोजत पटमास वीतिगये तवहुँन आयो अंत । ब्रजवनितनके नैन प्राणविच तुमहीं श्याम वसन्त ॥५८१ ॥ छिन नहि दूर श्याम तुम उनसों में निश्चय यह कीनों । तुम्हरो रूप देखि गोकुलमें वाट्यो नेह नवीनो ॥ ॥९८२ ।। तव हरि कह्यो सुनो उद्धव जू व्रजवासी तन मोर । तिनको सपन कबहुँ नहि छांडो सत्य कहतही तोर ॥ ५८३ ॥ वृन्दावनमें धेनु चरावत गोपसखनके संग । वेनुवंजावत मोद बढ़ावत क्रीडा कोटि अनंग ॥ ५८४ अरु गोपिनसों अंगसुअंगकरि नितप्रति करो विनोद । दुष्ट कंस मारन यह आयो सदा यशोदा गोद ॥५८५ ॥ कुंज कुंजमें क्रीडा करि करि गोपिनको सुख देहौं । गोपं सखन सँग खेलत डोलौं ब्रजतज अंत न जैहौं ॥५८६॥ मारेउ दुष्ट बहुत जो, भूपर धर्मकरो विस्तार । वसुंधाभार उतारन कारन यदुकुल लिय अवतार ।। ५८७ ॥ मित्र एक वन बसत हमारो सो नयनन भरि देख्यो। ताको पूजन नितप्रति करिहौं सो तुम सुबुधं विशे ख्यों ॥ ५८८ ॥ नाना रत्न कंदरा कवहूं छिन नहिं मोहिं भुलावे । क्रीडा करो नित्यः कुंजनमें गोपिन को सुखभावे ॥ ५८९ ताहीक्षण अक्रूर बुलाये वल मोहन यह भाख्यो । तुम अव वेगि जाव हस्तिनपुर कमल नयन. जिय दाख्यो ॥५९०॥ तब अक्रूर वैठि हरिके रथ हस्तिनपुर जुसिधारे । कुंती मिली युधिष्ठिर अर्जुन भीम विदुर उर धारे ॥५९१॥गांधारी दुर्योधनः आदिक भीष्म कण सब भेटे । बहुत दिनाके ताप सवनके सुफलकसुत सब मेटे ॥१९॥ तंब यह कार नृपतिसों नीके बहुत भांति समुझायो । तवनृप कहो नहीं मेरोवंश मोह प्रबल %