पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७४

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सूरसागर-सारावली।

(२१) जियछायो । ५९४ ॥ तब अकूर विचार कियो यह हरि इच्छा जियमानी । करि प्रणाम गये मधुपुर को जहां श्याम सुखदानी ।। ५९५ ॥ समाचार सवही कहि दोनों बल मोहनाहि सुनायो । सुन वसुदेव देवकी दोऊ बहुतहि दुखजिय पायो ॥ ५९५ ॥ अस्ती अरु प्राप्ती दोउपत्नी कंस राय की कहियत । जरासंधौ जाय पुकारों महा क्रोध मन दहियत ॥ ५९६॥ तीन वीस अक्षौहिणिले दल जरासंध तहँ आयो । बल मोहन छिनमांझ संहारे कार विनचमू पठायो। ॥ ५९७ ।। सत्रह वार फेर फिर आयो हरि सब चमू सँहारी । अवकै फेर दुष्ट पनि आयो हरि कछु वात विचारी ॥ ५९८ ॥ अंतरिक्षते द्वैरथ उपजे आयुध तुरंग समेत । तापर बैठ कृष्ण संकर्ष ण जीते हैं सब खेत ॥५९९ ॥ नारद जाय यवनसों भाष्यो राम कृष्ण दोउ वीर । तोहि न गनत वसतह मथुरा वडे वली रणधीर ॥६००॥ यह सुनि यवन तुरतही धायो जियमें अति अकुलाय। तीन कोटि भट यवन संगले मथुरा पहुँच्यो जाय ॥६०१॥ सुन बल मोहन वैठ रहास में कीनो कछू विचार । मागध मगध देशते आयो साजे फौज अपार ॥६०२॥ विश्वकर्माको आज्ञा दीन्हीं रची द्वारका आय । निशिको सोये सव मथुरा में जगे द्वारका जाय ।। ६०३ ॥ हलधर हलमूसल करलीने सभी मलेच्छ सँहारे। मार फौज सवही मागधकी जरासंध उबारे ॥ ६०४॥ चले भाज दोउ भाइ उहांते जहँ सोवत मुचुकुन्द । वसन उढायरहे छिपि आपन पूरण परमानन्द ॥ ॥६०५॥ मारी लात आय जब नृपको तव जाग्यो भहराय । निकसी अग्नि नैनते तासों भस्म भयो तेहि दाय ॥ ६०६॥ इतने मांझ आपु हार आये दरशन दीन्हों भूप । शंख चक्र गद पद्म चतुर्भुज सुंदर श्याम स्वरूप ॥६०७॥ तव पूछयो तुम कौन रूपही कौन देव अवतार । अंचलों कहुँ देखे नाही मैं तुम अति हौ सुकुमार ॥६०८ तब हरि को जन्म मेरे बहु शेप न पावें पार । भुवकी रज नभके सब तारे तितने हैं अवतार ॥६०९ ॥ अब कहिये द्वापर युग सुन नृप वासुदेव ममरूप । भूतल भार उतारन आयो यदुकुल सुखद स्वरूप ।। ६१०॥ तव नृपस्तुति बहु विधि कीन्हों जन्मकर्म गुणगाय । तुमहीं ब्रह्म अखिल अविनाशी भक्तन सदा सहाय ॥ ६११ ॥ नव गुण नवलरूप पुरषोत्तम जै यदुकुल अवतार । जयजयजय वैकुंठ महानिधि कमल नयन सुख सार ॥ ६१२ ।। वेद पुराण रटतयश जाको तऊ न पावत पार । मैं मुचुकुन्द नृपति कृतयुग को सोवत भये युगचार ॥ ६१३ ॥ अव मोको आज्ञा कछु दीजै जैसे चरणन पाऊं । सदावसों निजलोक निरंतर जन्म कर्म गुणगाऊं ॥ ६१४ ॥ क्षत्री जन्म बहुत अपकीन्हों ताते मुक्ति न होय । विप्र जन्म धरि मुक्तिहोयगी करि तप साधनसोय ॥ ६१५ ॥ आज्ञालैके चल्यो नृपति वह उत्तर दिशा विशाल । करि तप विप्र जन्म जब लीन्हों मिट्यो जन्म जंजाल ॥ ६१६॥ तहांते चले श्याम अरु हलधर परवरपन गिरि आये । पर्वत बहुत नमन करि पूजा यह विनती करवाये ॥ ६१७ ॥ नितप्रति मोशिर मघवा बरसत लागत शीत अपार । अगणित पाप महादुख मेटो मांगत यही मुरार ॥ ६१८ ॥ इतने मांझ मगध चलि आयो. उन जानी यह बात । पर्वत मांझ गये दोउ भइया उन देखे हग जात ॥ ६१९ ॥ दीन्हीं अग्नि लगाय चहूंधा उन जानी रिपु हान । राम कृष्ण दोउ कूद पधारे पुरी द्वारका जान ॥ ६२० ॥ भयो आनंद द्वारका में सब घर घर गीत गवाये । करि रिपु हानि समर सब जीत्यो रामकृष्ण घर आये ॥ ६२१॥ एक समय नारद मुनि आये नृपति भीष्मके गेह । पूजा करी बहुत नाना विधि नृपति जनाये नेह ॥ ६२२ ॥ लाख रुक्मिणी कहयो मुनि नारद यह कमला अवतार। ||