पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७५

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सुरसागर-सारावली। पूरण ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम श्रीवसुदेव कुमार ॥ ६२३॥ उनके योग्य. यही कन्या है सुनो देव महाराज । तव नृप काउ करों निश्चय यह सफलहोय ममकाज ।। ६२ ।। तब नारदमुनि गये द्वारका कृष्णचन्द्रके पास। विनती करी रुक्मिणीकी सव सुनि हरि भये हुलास ।। ६२५ ॥ करो वेग कछु विलम्ब न कोज नारद कहि यह बात । श्रवण सुनत कमलापतिको जियतनु पुलकित सवगात ॥ ६२६॥ सुन नारद म्वहिं नींद न आवे करिहौं वेग उपाय । यह कहि चले आपहार स्थचढ़ि शोभा कही न जाय ॥ १२७ ॥ देश देशके नृपति जुरे सव भीष्म नृपतिके धाम । रुक्म काउ शिशुपालहि देहौं नहीं कृष्णसों काम ।। ६२८ ॥ यतने मांझ आपु हरि आये सुनी नृपति. सबवात । उपवनरहे जान जियमें यह मनमें अति अकुलात ।। ६२९ ॥ पूजन करन चली देवी को सखी वृंद सवसंग । पूजा करिबोली यह कमला लोक लाज कृत भंग ॥ ६३० ॥ अटल शक्ति अविनाश अधिक वल एक अनादि अनूप । आदि अव्यक्त अविका पूरण अखिल लोक तव रूप ॥६३१ ॥ कृष्णचन्द्र के चरण कमल में सदा रहो अनुराग। येही पति नित होहिं हमारे जो पूरण मम भाग ॥६३२॥ तव उन कहेउ कृष्ण तुम्हरे पति |हैं अचल सुहाग । चली महावर पाय रुक्मिणी अति पूरण अनुराग ॥६३३॥ तव हरि आय बैठ स्थन के आय मिले वड़भाग। कर गहि वाह लई रथनीके अति आतुर चले भाग ॥६३४॥मानो नील मेघके सँगमें मिली दामिनी आय। चले तुरत हरि पुरी द्वारका शंख चक्र धार धाय ॥६३५ दुष्ट नृपति को मान मथन करि चले द्वारकानाथ । जरासंध शिशुपाल आदि नृप पाछे लागे साथ ॥ ६३६॥ रथपाछे मिलिशोभित यहि विधि सकल दुष्टकीखान । महासिंह निज भागलेत ज्यों पाछे दोर वान ।। ६३७ ।। हल घर आय दुष्टसब मारे असुर नृपति की भी।भाजि चले शिशुपाल जरासंध अति व्यापित तनुपार ॥६३८॥ आये नाथ द्वारका नीके रच्यो मांडयो छाय । व्याह केलि विधि रची सकल सुख | सौंज गनी नहिं जाय ॥ ६३९ ॥ ब्रह्मा रुद्र देव तहँ आये शुक नारद सनकादि । दरशन कार | मंगल सुखकै सव मेटी विरह जो आदि ॥६४०॥ चैत्रमास पूनो को शुभदिन शुभ नक्षत्र शुभवार। व्याहि लई हरि देव रुक्मिणी वाढ्यो सुख जो अपार ॥ ६४१॥ यक सत्राजित यादव कहिये सूरजदेव उपास । दीन्हीं मणि आदित्य स्यमंतक कोटिक सूर्यप्रकाश ॥ ६४२॥ भारभार नित कनकदेतहै नृपति सुनी यहवात । तवउन मांगी इननहिं दीनी वाढयोवैर अपात ।। ६४३ ।। एक दिवस मृगयाको निकस्यो कंठ महामणि लाय । तब उन सिंहमारि गहि लीन्हों ऋच्छ मिल्यो यकताय ॥ ६४४ ॥ जाम्बवान महबली उजागर सिंहमार मणि लीन्हीं। पर्वत गुफा वैठ अपने गृह जाय सुताको दीन्ही ॥ ६४५ ॥ चर्चा परी बहुत द्वारावति कृष्णचन्द्रकी बात । तव हरि गये शैलकंदरमें अतिकोमल मृदुगात ।। ६४६ ॥ दिनअट्ठाइस युद्ध कियो जव ऋच्छ भयो बलभंग। तव पगपरेउ बहुत स्तुतिकरि जानि रामपदसंग ॥ ६४७॥ तब हरि कहेउ भक्त तू मेरो तोसों कार संग्राम । कीन्हें शुद्ध तात्त्व सब तनुके पूरण कीन्हें काम ॥.६४८॥ जाम्बवती अरपी कन्या भार मणि राखी समुहाय । कार हरि ध्यान गयो हरिपुरको जहां योगेश्वर जाय ।। ६४९॥ लै. स्यमंतमणि जाम्बवतीसह आय द्वारकानाथा अति आनंद कुलाहल घर घर फूले अँग न समात. ॥ ६५० ।। आश्विनसुदिनौमीको शुभदिन हरि आये निजधाम । तौलौं घरघरप्रति दुर्गाको पूजन कियो सब गाम ॥ ६५१ ॥ सत्राजित अपनी तनयाको दीन्हें त्रिभुवनराय । सतभामा जुनाम तेहि कहियत शोभाकही न जाय ॥ ६५२ ॥ कीन्होव्याह परमआनंद सों सतभामा सुखरास.!! -