पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७६

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सूरसागर-सारावली। (२३) AR- द्वारावती विराजत नित प्रति आनंद करत विलास ॥ ६५३ ॥ इन्द्रप्रस्थ हार गये कृपाकार पांडव कुलको तार । तहँ कालिन्दी वनमें व्याही अतिसुन्दार सुकुमार ।। ६५४ ॥ मित्रविंदा यक नृपति नन्दनी ताको माधव व्याये । सात बैल नाथनके कारण आप अयोध्या आये॥६५॥सत्या व्याहि बहुत सुख कीन्हो मथ्यो नृपति को मानाआये फेर द्वारका मोहन मंगलकेलि निधान।।६५६॥ भद्रा व्याहि आप जवआये द्वारावती अनन्द । तैसेही लक्ष्मणा विवाही पूरण परमानंद ॥६६७॥ नरकासुरको मारि श्यामपन सोरह सहस त्रियलायोएकहिलन सवनकर पकरेव एकमुहूर्त विवाये॥ यह सुनि नारद अचरज पायो ब्रह्मलोकते धाये । कृष्णचन्द्रके चरण परस करि वीणा मधुर वजाये ॥ ६५९ ॥ तव हरि रीझि कहेउ नारदसों कही कहांते आये । तब उन कहेउ दरशको आयो बहुत रूपधरि व्याये ॥६६०॥ यह कौतुक देखनके कारण मैं आयो जो देखावो । रूप अनंत आदि अविनाशी दरशन प्रेम बढ़ावो ।। ६६ ॥ तब हरि कहेउ जाव घर घर प्रति देखोगे सब ठौर । मैंही हौं सव थल परिपूरण मो विन नाहिंन और ॥ ६६२ ॥ तव मुनि चले देख घर घर प्रति परम केलि सुखपायो । नाना क्रीड़ा करत निरन्तर घरघर रूप देखायो॥ ६६३॥ कहुँ क्रीडत कहुँ दामबनावत कहूं करत शृंगार । कहुँ बालकन खिलावत माधव खेलत परम उदार ॥६६॥ कहुँ चौपर खेलत युवतिन सँग पांच सात उच्चाराकहुँ मृगयाको चले अश्वचढ़ि श्रीवसुदेव कुमार ॥६६५॥ कहुँ कर लेकर शस्त्र संवारत कहुँ कछु करत विचार । कहुँ कछु बात कहत सवहिन सों कहुँ ध्वनि वेद विचार ॥ ६६६॥ कहुँ मिलि यज्ञकरत विप्रनसँग अति आनंद मुरार । नाना दानदेत हय गज भुव ऐसे परम उदार ॥ ६६७॥ कहुँ गोदान करत कहुँ देखे कहुँ कछु सुनत पुरान। कहुँ निर्तत सवदेख वारवधु कहुँ गधरव गुणगान।।६६८॥कहुँ जप करत सनातन निज वपु ब्रह्म करत कहुँध्यान । कहुँ उपदेश कहूं जैवेको कहूं दृढ़ावतज्ञान ॥६६९॥ कहुँभोजन नानासाचे मांगत पटरसके पकवान । आरोगत व्रजराज सांवरो कहूं करत जलपान ।। ६७० ॥ कहुँजागत दरशनदियो मुनिको करि पूजापरणाम । संध्या करत कहूं त्रिभुवनपति स्नान करत कोउ धाम।। ॥६७१ ॥ कहुँ पोढे कमलाके सँगमें परम रहस्य एकान्त । कहुँचत करत कहूँ निगमनकोज्ञान कर्मकोअंत ।। ६७२ ॥ कतहूं श्राद्धकरत पितरनको तर्पणकरि बहुभांति । कहुँ विप्रनको देतदक्षिणा कहुँभोजनकीपांति ॥ ६५३ ॥ कहूँ सुगंध लगावत लैंकै कहूं अव शृंगार । कहुँ गजरथ कहुँ वाजि रथन सजि डोलतहैं गृह द्वार ॥६७४॥ कहुँ ऊघोसों ब्रजमुख क्रीडा परम प्रेम उच्चार । कहुँ पांडवकी कथा चलावत चिन्ता करत अपार ॥ ६७५ ॥ कहुँ मिलि विप्र कहत सवहिनसों वालक करन सगाई। कहुँ सुतव्याह कहूं कन्याको देत दायजो राई ॥ ६७६॥ कहुँ गजराज बाजि शृंगारे तापर चढे जुआप । सँग बलभद्र चमू सब सँग ले चले असुर दल कांप। ॥ ६७७॥ कहूं हस्तिनापुर देखनको मनमें करत विचार । कतहूं अर्घ्य देत सूरजको कहुँ पूजत त्रिपुरार ।। ६७८॥ कहुँयक दुर्गादेवि जानिकै जोरि विप्र निज धाम | करतहोम बहु भांति वेदध्वनि सवविधि पूरण काम ॥ ६७९ ॥ प्रथमपुत्रको व्याह जानिकै पूजत कहूं गणेश। कहूं ऋपिनके चरण धोयकै शिरपर धरत नरेश ॥ ६८०॥ कहूं व्याहकी केलि परमसुख निरखत मुनि सचुपायो । शेप सहसमुख पार न पावें कछु इक सुरजुगायो ॥ ६८५ ॥ फिर मुनि आय भवन कमलाके चरण कमल शिरनायो । मैं सब और फिरेउ तुव देखन कतहूं पार न पायो । ६८२॥ जित तित देखों तुम परिपूरण आदि अनंत अखंड । लीला प्रकट देव