पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७९

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(२६) सूरसागर-सारावली। काज विगारे वहँकाये ब्रजराज ॥ ७४२ ॥ यज्ञ करत विप्रन मथुरा में यांचे भीख न दीन्हीं। अर्पण कियो नही देवनको पहिले इनमति कीन्हीं ॥ ७४३॥ माखन चोर चोर गोपिनको दूध जु दधि लैखायो । यमुना न्हात गोपकन्यनको लैपट कदम चढ़ायो ।। ७४४ ॥ काली हरिकी आमा को लै यमुनामांझ वसायो। ताहि निकालदियो क्षणहीमें नेक सकोच न आयो॥७४५ ॥ यक पूतना पयपान करावन प्रेम सहित चलिआई। ताहि लगाय हृदय लपटानो प्राण जो लियो चुराई ॥ ७४६ ॥ जन्महोत इनमात तात को तवहीं वन्धन दीन्हों। यादव जात भाज जित तितको । अनत जाय सुख कीन्हों ।। ७४७॥ वेणु वजाय रास इन कीन्हों मधुप गोपकी नारी । परनारीको दोष कछूचित इन नहिं कीन्ह विचारी ॥७४८॥ दूध दहीके भाजन चाटे नेकहु लाज न आई। माखन चोरि फोरि मथनीको पीवत छांछ पराई ॥७१९ छांक खाय जूठन ग्वालिनको कछु मनमें नहिं मान्यो । परदाराके संग आय निशि कुन्जासों सुख मान्यों ॥ ७५० ॥ बहुत प्रीति कार गोपन जाने बहुविधि लाड़ लड़ायो । ताको यत्न कछू नहिं मान्यों मथुरामें चलि आयो ॥७५३॥ जरासन्ध इन बहुत बारही कार संग्राम पलायो। हमरे डर कर दोऊभाई नगर समुद्र वसायो । ॥७२॥कालयवनके आगे भाज्यो जाय गुफागहि लीन्ही । लातमारि मुचुकुन्द जगायो नेकु दया नहिं कीन्हीं।७५३॥बातें बहुत याहिकी लंपट सभा मांझ नहिं कहियोजियमें समुझ अपने सन्मुख मुखते चुपकरि रहिये ॥ ७५४॥ अतिशयक्रोध भये पांडवसुत और नृपति हरिदास । राखे वरन सवनको माधव नेक न भये उदास ।। ७५५ ।। अतिहीभई अवज्ञा जानी चक्र सुदर्शन मान्यो। करि निज भाव एक कुशतनमें क्षणक दुष्ट शिरभान्यो । ७५६॥ परम कृपालु दयाल देवकी नन्दन पावननाम । दीन्हीं मुक्त दयाकरिकै तव दियो लोक निजधाम ।। ७६७ ॥ जयजयकार भयो वसुधापर राज युधिष्ठिर हरपे । अमृतस्नान कराय वेद विधि कनक कुसुम शिर वरप।।७२८॥ दीन्हीं सभा बनाय पांडुकी मय मायागत अंताताको देख भ्रमे दुर्योधन महा मोह मतिमंत।।७५९॥ जलमें थलमति थल में जलमति भई नृपतिको जान । अन्ध पुत्र लखि हँसे पवनसुत सुन जियमें रिसमान ॥ ७६० ॥ गयो भवन अकुलाय बहुत जिय क्रोधवंत अभिमानी । ताही दिनते पांडु पुत्रसों वैर विषम गति ठानी ।। ७६१ ॥ सभा रची चौपर क्रीड़ा करि कपट कियो अति भारी। जीत युधिष्ठिर भइ सब जानी तउ मनमें अधिकारी ॥ ७६२ ॥ युवती धरी जान दुष्टन ने जब द्रौपदी वुलाई । हरिको सुमिरन करत पंथमें दुश्शासनं गहिलाई ।। ७६३ ।। अहोनाथ ब्रजनाथ नाथनिज यदुकुल के निज नाथ । गोकुलनाथ नाथ सब जनके मोपति तुम्हरे हाथ ॥ ॥ ७६४॥ज्यों गजराज बचायो जलमें नेक विलंब न कीन्हीं। अपनो भक्त बचावन कारण विष अमृत करि दीन्हीं ॥ ७६५ ॥ शबरी गीध और पशु पक्षी सबकी रक्षा कीनी । अब तो सहाय करो तुम मेरी हैं पांवर मतिहीनी ॥ ७६६॥ चौपर खेलत भवन आपने हरि द्वारका मंझार।। पांसे डार परम आतुर सों कीन्हें अनत उचार ॥ ७६७॥ चीर बढ़ाय दियो बहु तेहिक्षण ऐचत पार न पायो। भीष्म द्रोण अरु कर्ण युधिष्ठिर सब विस्मय मन लायो |७६८॥ रहेउ दुष्ट पचि हार दुशाशन कछू नकला चलाई । वैठो आय सभामें पाछे चार वार पछिताई ॥ ७६९ ॥ फिर द्रौपदी भवनमें आई श्री हरि लज्जा राखी । वेद पुराण तन्त्र भारत में कही बहुत विधि भाखी॥ ॥ ७७० ॥ पुनि वनवास दियो पांडवसुत हरि द्वारका में जानी । अक्षय पात्र दिवायो रविपै बढे । भक्त सुखदानी ॥ ७७१ ॥ दुर्वासा शापनको आये तिनकी कछु न चलाई । अक्षय कियो कमल । - -