पृष्ठ:सूरसागर.djvu/८१

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(२८) सूरसागर-सारावली। . . . . .:: द्वारका यदुकुलमें सुख कीन्हों ॥ ८०२ ॥ वहिन सुभद्रा व्याह विचारो हरि अर्जुन चित... धारो । श्रीवलदेव काउ दुर्योधन नीको दुलह विचारो ॥ ८०३ ॥ हरिको भेद पायके अर्जुन धार दंडीको रूप । भिक्षाको निजभवन बुलायो श्रीवलभद्र अनूप ॥ ८०४ ॥ नयनन । मिलत लई कर गहिकै फाल्गुन चले पराय । सुनि बलदेव क्रोध अति वाट्यउ कृष्ण शान्त कियो आय ॥ ८०८ ॥ फेर बुलाय व्याह करिदीन्हों विजय बहुत सुखपायो । फिर आये हस्तिनपुर पारथ मघवा प्रस्थ वसायो ॥ ८०६ ॥ एक दिना यकविप्र भक्तमति हरिको सखा- कहावे । अतिदारिद्र दुखित ज़बजाने तब पत्नी समुझावे ॥ ८०७ ॥ जाहु नाह तुम पुरी द्वारका कृष्णचन्द्रके पास । जिनके दरश परश करुणाते दुख दरिद्रको नासः ॥ ८०८ ॥ तंदुल मांग दोंचिके लाई सो दीन्हों उपहार । फाटेवसन वांधिकै द्विजवर अति दुर्वल. तन हार ॥ ८०९ ॥ आये देव द्वारका हरिपै जाय चरण शिरनायो । हरि भेंटे भ्राताकी नाई । पूजा विविध करायो ॥ ८१० ॥ अपने मुनि आसन वैठारे हँसि हँसि वूझत बात । कहो। विप्र हमगये वन्तिका गुरुके सदन विख्यात ॥ ८११ ॥ वनमें वह वर्पा जब आई ताको सुधिः । करलेहों । गुरुआये आपुनको वोलन मंत्र थकायो मेहों ॥ ८१२ ॥ तादिन की यह कथा । तुम्हारी विसरत नाहिन मोहिं । कीधों कौन कार्यको आये सो पूंछत हौं तोहि ॥ ८१३ ॥ कछु हमको उपहार पठायो भाभी तुम्हरे साथ । फाटे वसन सकुच अति लागत काढत नाहिन . हाथ ॥ ८१४ ॥ हार अपने करछोर वसनको तंदुल लीन्हें हाथ । मुट्ठीएक प्रथम जब " लीन्हें खान लगे यदुनाथ ॥ ८१५ ॥ द्वितीय मुष्टिका लेनलगे जब कमला गहि लियो हात ।। दियो द्विजहि मघवाको वैभव बाढ्यो यश विख्यांत ॥ ८१६ ॥ भोर भये उठिचले भवन को हरि कछु इनहिं न दीन्हों । ताको हर्ष शोक निज मनमें मुनिवर कछू न कोन्ही ॥ ८१७ ॥ भलीभई हरि दरशनपायो तनुकोताप नशायो । दुर्बल विप्र कुचील सुदामा ताको कंठ लगायो॥ ॥८१८॥ धन्य धन्य प्रभुकी प्रभुताई मोपै वरणि न जाई । शेष सहसमुख पार न पावत निगमनेति कहिगाई ।। ८१९ ॥ ऐसे कहतगये अपनपुर सहिं विलक्षण देख्यो । मणिमय महल । फटिक गोपुर लखि कनकभूमि अवरेख्यो ।। ८२० ॥ पत्नी मिली परमसुख पायो कृष्णचन्द्र आराधे । मघवाको सुख भयो सुदामहिं तऊ कछुक नहिं बाधे ॥ ८२१ । नौलख धेनुदई. राजानृग बहुतहिं दान देवायो । कृष्णभक्तिविन विप्र शापते गिरगिटकी गतिपायो । ८२२॥ ताको चरण परशिकै माधव दुःखित शाप छुटायो । कृपाकरी यदुनाथ महानिधि जिन वैकुंठ । पठायो । ८२३ ॥ बलदाऊ ब्रजमंडल आये ब्रजवासिनको भेटे । वहुत दिननके विरहताप दुख । मिलत क्षणक में मेटे ॥ ८२४ ॥ सघन निकुंज सुभग वृन्दावन कीन्हें विविध विहार । गोपिन संग रासरस खेले वाढ्यो श्रम सुकुमार ॥ ८२५॥ कालिन्दीको निकट बुलायो जलक्रीड़ाके काज । लियो आकरषि एक क्षणमें हरि अति समरथ यदुराज ।। ८२६॥ विविध भांति क्रीडा हरि कीन्ही ब्रजवासिन सुखदीन्हों। द्वादश वन अवलोक मधुपुरी तीरथको चित कीन्हों ॥८२७॥ शुभ कुरुक्षेत्र अयोध्या मिथिला प्राग त्रिवेनी न्हाये। पुनि शतरुद्र और चन्द्रभागा गंगाव्यास न्हवाये ॥ ८२८॥ निमिषारन आये बलजू जब सकल विप्र शिरनायो । करी अवज्ञा कथा कहत द्विज अपने लोक पठायो । ८२९ ॥ तव द्विज कहेउ कथा कहिके यह हमको सुख उपजायो! हम कापै अन्न कथा सुनेंगे बलदाऊ समझायो ।। ८३० ॥ इनको पुत्र होय जो वालक ताको वेग