पृष्ठ:सूरसागर.djvu/८२

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सूरसागर-सारावली। (२९) - - - विटावो । घरेउ हाथ शिर दीन्हीं विद्या नित प्रति कथा. सुनावो ॥ ८३१ ॥ पुनि द्विज विनती करि यह भाष्यो असुर एक इहँ आवे । यज्ञ करतमें जानपरत वह आय रुधिर वर्षावे।। ८३२.॥ यह सुनिकै बलदेव गुसाई हल मूशल लियो हात । लियो पकर हल नभ मण्डलते करमूशल सों घात ॥ ८३३॥ जयजयकार भयो सुरलोकन देव दुंदुभीवाजै । स्तुति करत बहुतपूजा द्विज अति आनंद. समाजै ।। ८३४ ॥ विनती करी बहुत विप्रनने राम विप्र तुम मारेउ । तीरथ न्हाय शुद्ध तनको करि हरिद्विज वचन विचारेउ ॥ ८३५ ।। वर्ष दिवसमें अरसठ तीरथ न्हाय करत घरआये । आय प्रभास विप्र बहुजनको बहुतहि दान देवाये ।। ८३६ ॥ पुन मिथिला यक दिवस पधारे हरि वलदेवगोसांई । गा युद्ध दुर्योधन सिखयो नानाभेद बताई ॥ ८३७ ॥ पुनि द्वारका पधारे निजपुर अतिआनँद सुखवादयो । प्रगट ब्रह्म नित वसत द्वारका कलह भूमिको कादयो। ॥८३८॥ दश दश पुत्र एक एक कन्या हरि सबके उपजाई। सुतके सुत नाती पतिनीकी महिमा कहिय न जाई॥ ८३९॥ बड़े बली प्रद्युम्न कहावत कृष्ण अंश अवतार । तिन सब जगजीत्यो तिहुँ लोकन वाट्यो सुयश अपार ॥ ८४०॥ अश्वमेध करवाय युधिष्ठिर कुलको दोपमिटायो। कार दिग्विजय विजयको जगमें भक्त पक्ष करवायो ॥ ८४१ ॥ नानाविधि कीन्ही हरि क्रीड़ा. यदुकुल शाप दिवायो। जो ज्यहि लोक छोंडिके आयो ताको तहँ पहुँचायो । ८४२॥ ऊधोको कहिज्ञान आपनो निगमन तत्त्व बतायो । कही कथा दत्तात्रय मुनिकी गुरु चौवीश करायो। ॥ ८४३॥ कहि आचार भक्त विधभापी हंसधर्म प्रकटायो । कही विभूति सिद्ध साधनता आश्रम चार कहायो ।।८४४॥ सांख्यतत्त्व गीताहरि कीन्हीं गुणके भेद करायो । ऐलगीत पुनि भिक्षुगीत कहि पूजा विधि दरशायो ॥८४५॥ सदा वसत हरि पुरी द्वारका बहु विधि भोग विलासी। आदि अनन्त अघट्ट अनूपम हैं अविगति अविनाशी ।। ८४६ ॥ एकदिना यकविप्र द्वारका वसत सुखद निजधाम । वेदरूप तपरूप महामुनि कृष्ण विप्र यह नाम ॥८४७॥ बालक दश जुभये वाके जव भूमा लिये मँगाय । चित्तमें यह अनुरक्त विचारत हरि दर्शनकी चाय ।। ८१८॥ दश सुत भयो जानके ब्राह्मण करि पुकार हरिपास । तब हरि कहेउ देवकी गति यह करत काल जग नास ।। ८४९॥ तर अर्जुन यह कहेउ मत्त व नृप नाहिन भुवभार । मैं अर्जुन गांडिवधनु जाको काल लरों क्षणमार ।। ८५० ॥ जब सुत भयो कहेउ ब्राह्मणते अर्जुन गये गृहताह । शर पंजर रोप्यो चहुँ दिशिते जहां पवन नहिं जाह ॥ ८५१ ।। तव सुत गयो देहको लेकै दरशन भयो न ताय । अतिही क्रोध भयो ब्राह्मणको बहुत वक्यो बिलखाय ।। ८५२ तब अर्जुन ढूंढनको निकसे तीनलोक फिरि आयो । कहुं न पायो सुत ब्राह्मणके तव मनमें अकुलायो ॥ ८५३ ॥ कियो विचार प्रवेश अग्निको हरि आये समुझायो । लै निज संग चले पश्चिमको लोकालोक सोहायो । ८५४ ॥ कनकभूमि अरु धामदेनको देखे परम सुहायो । बहुत निविडतम देख चक्र धरि घरेउ हाथ समुझायो । ८५५ ॥ महाकालपुर तुरत पधारे हरिभूमाके पास । तुल्य अग्नि वर अगिन समानी भूमा तेज प्रकाश ।। ८५६॥ कृष्ण तेजको देख सकल सुर तन मन भयो हुलास । अतिहीमन्द तेज भूमाको हरिके तेज प्रकाश।।८५७॥अति आनन्द परस्पर बादयो जब उन विनती कीन्हीं । भलीभई भुवभार उतारेउ मेरी फिरि सुधि लीन्हीं ।। ८५८॥ लैदशपुत्र द्वारका आये दीन्हें विप्रबुलाय । कीन्हों दुःख दूरि अर्जुनको महिमा प्रकट दिखाय ।। ८५९ ॥ कीन्हीकेलि बहुत बल मोहनः भुषको भार उतारेउ । प्रकट ब्रह्मराजत द्वारावति वेदःपुराण विचारेउ ॥ ८६० ॥