पृष्ठ:सूरसागर.djvu/९१

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h (३८) - सूरसागर-सारावली। राखों कंठलगाय लालको पलक ओट नहिं करिहौं । युग कुच बीच भुना दोउन मिल सदा प्रेमरंगा भरिहौं । १०९८ ॥ सदा एकरस एक अखंडित आदि अनादि अनूप । कोटिकल्प बीतन नहिं: जानत विहरत युगल स्वरूप ॥ १०९९ ॥ संकर्षणके वदन अनलते उपजी आनि अपार । सकल. ब्रह्मांड तुरत तेजसों मानो होरी दई पजार ॥ ११०० ॥ सकल तत्त्व ब्रह्मांड देवपुनि माया सब विधि काल । प्रकृति पुरुष श्रीपति नारायण सबढ़ अंश गोपाल ॥ ११०१ ॥ कर्म योग पुनि ज्ञान उपासन सबही भ्रम भरमायो । श्रीवल्लभ गुरुतत्त्व सुनायो. लीलाभेद बतायो । ११०२॥ तादिनते हरिलीलागाई एक लक्ष पदबन्द । ताको सारसूरसारावलि गावत अति आनन्द।।११०३. अथ श्रीनाथजीके वरदान ॥ तब बोले जगदीश जगतगुरु सुनो सूर ममगाथ । तूकृत ममयशः जो गांव गो सदारहै ममसाथ ॥ ११०४॥ खेलत यहि विधि हरि होरी हो होरी हो वेद विदित यह बात। ॥ * ॥धरि जिय नेम सूर सारावलि उत्तर दक्षिण काल । मन वांछित फल सपही पावें मिटे जन्म जंजाल||११०६॥सीखै सुनै पढ़े मनराखै लिखै परम चितलायाताके संग रहतहौं निशि दिन आनंद जन्म विहाय ॥ ११०६ ॥ सरस संमतसर लीलागावें युगल चरण चितलावें । गर्भवास बंदीखाने । में सूर बहुरि नहिं आवें ॥ ११०७॥ इति श्रीसूरदासजीकत सम्मतसरलीला तथा सवालाखपदकेसूचीपत्रसमाप्त ॥ -