पृष्ठ:सूरसागर.djvu/९५

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(२) सूरसागर। वासुदेवकी बड़ी बड़ाई ॥ जगतपिता जगदीश जगत गुरु अपुन भक्तकी सहत ढिठाई । भृगुः || को चरण अग्नि उर अंतर बोले वचन सकल सुखदाई । शिव विरंचि मारनको धाए सो गतिः काहू देव न पाई ॥ विनु बदले उपकार करतहैं स्वारथ विना करत मित्राई । रावण अरिको अनुज विभीषण ताको मिले भरतकी नाई ॥ वकी कपट करि मारन आई सो हरिजू वैकुंठ पठाई। विनु दीनेही देत सूर प्रभु ऐसे हैं यदुनाथ गुसाई ॥३. ॥ राग धनाश्री ॥ करणी करुणासिंधुकी कछु कहत न आवै । कपट हेतु परशे वकी जननी गति पावै ॥ वेद उपनिषद यश कहै निर्गुणहिं ।। बतावै । सोई सगुण होय नंदकी दावरी बँधावै ।। उग्रसेनकी आपदा सुनि सुनि विलखावै । कंस मारि राजा कियो आपुन शिरनावै ॥ जरासंधकी वंदीकाटी नृप कुल यश गावै । असमय वन निगले पिता ताको शाप नशावै ॥ उधरे सोक समुद्र ते पांडव गृहं लावै । जैसे गैया बच्छको सुमिरत उठि धावै ॥ वरुण फांस ते ब्रजपतिहि छिन माहिं छुड़ावै । दुखित गयंदहि जानिक आपुन उठि धावै ॥ कलि में नामाप्रगटियो ताकी छानि छवावै। सूरदासकी वीनती कोउ लै पहुँचावै. ॥४॥राग मारू । ऐसी कौन करी है और भक्त काजै ! जैसे धरै जगदीश जिय माहिं लाजै॥हिरन । कश्यप बढ्यो उदय अरु अस्त लौँ ग्रस्यो प्रह्लाद चित चरण लायो । भीरके परे ते धीर सब हिन तज्यो खभते प्रगट कर जन छुड़ायो॥ ग्रस्यो गज ग्राह लै चल्यो पातालको कालके त्रास मुख नाम आयो । छांडि सुखधाम अरु गरुडतजि सांवरो पवनके गवन ते अधिक धायो।। कोपि कौरव गहे केश जब सभा में पांडुकी बधू यश नेकु गायो । लाजके साज़ में हुती ज्यों द्रौपदी बढ्यो तनु चीर नहिं अंत पायो॥रोरके जोर ते सोर घरनी कियो चल्यो द्विज द्वारका जाय ठा. ढयो।जोरि अंजलि मिले छोरि तंदुल लये इन्द्रके विभव ते अधिक बाढ़यो॥शकको दान विनमान ग्वालिन कियो गह्यो गिरिपान यश जगत छायो। यहै जिय जानिकै अंध भव त्रास ते सूर कामी.. कुटिल शरण आयो॥५॥राग रामकली । जहां जहां सुमिरे हरि जेहि जेहि विधि तहां तैसे उठि धाये हो । दीनबंधु हरि भक्त कृपानिधि वेद पुराणनि गाये हो ॥ सुतः कुवेर के मत्त मगन भए । विप रस नैना छाये हो । मुनि शराप ते भये जमल तरु तेहि हित आयु बधाये होवस्त्र कुचैल दीन द्विज देखत ताके तंदुल खाये हो। सम्पति दई वाकी पत्नीकोमन अभिलाष पुराये हो।जब गज गह्यो। ग्राह जल भीतर तब हरि नाम पुकारयो हो । गरुड छांडि आतुर लै धाये सो तत्काल उवारयो हो ॥ कलानिधान सकल गुणसागर गुरु धौं कहा पढ़ाये हो ॥ तेहि उपकार मृतक सुत यांचे सो यमपुर ते ल्याये हो ॥ तुम मोसे अपराधी माधव कितेक मुक्ति पठाये हो । सूरदास प्रभु भक्त वछल तुम पावन नाम कहाये हो॥ ६॥ राग धनाश्री ॥ प्रभुको देखो एक सुभाई। अति गंभीर उदार उदधि सरि जान शिरोमणि राई । तिनका सों अपने जन को गुण मानत मेरु समान । सकुचि समुद्रगनत अपराधहिं बूंद तुल्य भगवान ॥ वदन प्रसन्न कमल ज्यों सन्मुख देखतः । हाँ हो जैसे। विमुख भये अकृपिण निमिष हूं फिर चितयोतो तैसे ॥ भक्त विरह कातर करुणामय डोलत पाछे लागे ।सूरदास ऐसे स्वामीको देहिं सु पीठ अभागे ॥७॥ राग नट ॥ हरि सो ठाकुर और न जन को। जेहि जेहि विधि सेवक सुख पावै तेहि विधि राखत तिनको ॥ भूखे बहु भोजन जु उदर को तृषां तोय पट तन को। लग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत सँग उचित गमन ग्रह वनको ॥ परमः उदार चतुर चिंतामणि कोटि कुवेर निधनकोराखत हैं जनकी परतिज्ञाहाथ पसारत कणको संकट पर तुरत उठि धावत परम सुभट निज प्रणको। कोटिककरैं एक नहिं मान सूरमहा कृतवनको