पृष्ठ:सूरसागर.djvu/९८

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प्रथमस्कन्ध-१ करि करि मिथ्या निशा जगावै । सोवत स्वप्ने में ज्यों सम्पति त्यों दिखाय वोरावै ॥ महा मोहिनी मोह आत्मा मन करि अपहि लगावै । ज्यों दूती परवधू भोरिक ले परपुरुष दिखावै ॥ मेरे तो तुमही पति तुम गति तुम समान को पावै । सूरदास प्रभु तुमरी कृपा विनु को मों दुख विसरावै॥ ॥२२॥राग सोरठ ॥ हरि तेरी माया कौन विगोयो । सौ योजन मर्याद सिंधु की पल में राम विलोयो ॥ नारद मगन भये माया में ज्ञान बुद्धि वल खोयो । साठ पुत्र अरु द्वादश कन्या कंठ लगाये जोयो ॥ शंकर को चित हरयो कामिनी सेज छोड़ि भुव सोयो । जारि मोहिनी आढ आढ कियो तव नख शिखते रोयो ॥ सौ भैया राजा दुर्योधन पल मों गरद समोयो । सूरज दास कांच अरु कंचन एकहि धगा परोयो ॥ २३ ॥ राग सारंग ।। तुमरी माया महावली जिन जग वश कीनों । नेकु चितै मुसुकाइ सवन को मन हरि लीनो ।। कछु कुल धर्म न जानई वाके रूप सकल जग राच्यो। विनु देखे विनहीं सुने ठगत न कोऊवाच्यो।सुनि याके उत्पातते शुक सनकादिक भागे। लोक लाज सब छुटि गई काम क्रोध मद जागे॥ अकथ कथा याकी हरी कहि कहत न आई।छै- लनके सँग यो फिर जैसे तनु सँग छाई । इहि विधि इन डहके सबै जल थल जिय जेते । चतुर शिरोमणि नंदके अरु कहा कहों केते ॥ पहिरे राती चूनरी शिर श्वेत उपरना सोहै। कटि लहँगा लीलो वन्यो झोको जो देखि न मोहै ।। चोली चतुरानन ठग्यो अमर उपरना राते । अतरौटा अव- लोकि कै सव असुर महा मद माते ॥ योग युगति विसरी सबै उठि धाए संग लागे । नेक दृष्टि तहँ परि गई शिव शिर टोना लागे ॥ वहुत कहां लौं वर्णियो पर पुरुष न उबरन पावै । भरि सोवै सुखनींद में तहाँ जाइ जगावै ॥ एकनि को दरशन ठग्गौ एकनि सँग सोवै । एकनि लै मन्दिर चढे इक विरचि विगोवै॥ यहि लाजनि मरिए सदा सव कहत तुमारी । सूरश्याम यहि वरजिकै मेटहु कुल गारी ॥२४॥ राग विहागरा ॥ हरि तेरो भजन कियो न जाइ। कहा कहूं तेरी प्रबल माया देति लहर वहाइ ॥ जवै आऊं साधु संगति कछुक मन ठहराइ । ज्यों गयंद अन्हाइ सरिता बहुरि वहै सुभाइ ॥ वेप धरि धरि हरचो परधन साधु साधु कहाइ । जैसे नटुवा लोभ कारण करत स्वांग बनाइ ॥ करौं यतन न भजौं तुमको कछुक मन उपजाइ । सूर हरिकी प्रबल माया देति मोहिं लुभाइ ॥ २५ ॥ माधव जू मन माया वश कीनो । लाभ हानि कछु समुझत नाहीं ज्यों पतंग तनु दीनो ॥ गृह दीपक छन तेल तूल तिय सुत ज्वाला अति जोर । मैं मतिहीन मर्म नहिं जान्यों परयों अधिक करि दौर॥ विवश भयों नलिनीके शुक ज्यों विनु गुन मोहिं गह्यो। मैं अज्ञान कछू नहिं समुझो परदुख पुंज सह्यो। बहुतक दिवस भए या जग में भ्रमत फिरयो मतिहीन । सुरश्याम सुंदर जो सुमिरै क्यों होवै गति दीन ॥२६॥ अविद्या वर्णन । मलार ॥ माधव जू यह मेरी इक गाई । अव आजु ते आपु आगे दै लै आइए चराई ॥ है अति हरिहाई हटकत हूँ बहुत अमारग जाती। फिरति वेद वन ऊख उखारात सव दिन अरु सव राती ॥ हितकै मिलै लेह गोकुलपति अपुने गोधन मांह । सुख सोऊं सुनि वचन तुम्हारे देहु कृपा करि वांह ॥ निधरक रहौं सूरके स्वामी जन्म न जाऊं फेरि । मैं ममता रुचि सो रघुराई पहिले लेउँ निवेरि ॥ २७ ॥ रागधनाश्री ॥ कितक दिन हरि सुमिरन विनु खोये । परनिंदा रसनाके रसमें अपने परतर बोये ॥ तेल लगाइ कियो रुचि मर्दन वस्त्रहिं मलि मलि धोये । तिलक वनाइ चले स्वामी है विषमनि के मुख जोयो।काल वलीते सब जग कंपत ब्रह्मादिक हूं रोयोसूर अधम की कहौं कौन गति उदर भरे परि सोये ॥ २८॥ तृप्णा वर्णन । फेदारा॥ माधव जू नेकु हटको गाइ । निशि वासर यह भरमति