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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१५२

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सेवासदन
१६५
 


रहती थी, वे अपनी चारपाईपर करवट बदल-बदलकर यह गीत गाया करते-


अगिया लागी सुन्दर बन जरि गयो।

कभी-कभी यह गीत गाते-


लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।

मै पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख।


उनके नेत्रों में एक प्रकार की चंचलता दीख पड़ती थी। जान्हवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।


{{gap}जाड़ेके दिनमे कृषकों की स्त्रियाँ हाटमे काम करने जाया करती थी। कृष्णचन्द्र भी हाटकी ओर निकल जाते और वहां स्त्रियोसे दिल्लगी किया करते। ससुरालके नाते उन्हे स्त्रियोसे हँसने बोलनेका पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवने ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थी कि स्त्रियाँ लज्जासे मुह छिपा लेती और आकर जान्हवी से उलाहने देती। वास्तव मे कृष्णचन्द्र कामसन्ताप से जले जाते थे।


अमोलामे कितने ही सुशिक्षित सज्जन थे। कृष्णचन्द्र उनके समाजमें न बैठते। वे नित्य सन्ध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मण्डलीमे बैठे हुए वे अपने जेलके अनुभव वर्णन किया करते। वहाँ उनके कंठसे अश्लील बातोकी धारा बहने लगती थी।


उमानाथ़ अपने गॉव में सर्वमान्य थे, वे बहनोई के इन दुष्कृत्योको देख-देखकर कट जाते और ईश्वरसे मनाते कि किसी प्रकार ये यहाँसे चले जायँ।


और तो और,शान्ताको भी अब अपने पिताके सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गाँवकी स्त्रियाँ जब जान्हवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निन्दा करनेंं लगती तो शान्ता को अत्यन्त दु:ख होता था। उसकी समझ में न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। यह कैसे गम्भीर, कैसे