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सेवासदन
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मुसलमान दिल खोलकर मिलते है, जहाँ द्वेष का वास नहीं है जहाँ जीवन संग्राम से विश्राम लेनेके लिये अपने हृदय शोक और दुःख भुलाने के लिये शरण लिया करते है। अवश्य ही उन्हें शहर से निकाल देना उन्ही पर नहीं, वरन् सारे समाज पर घोर अत्याचार होगा।

कई दिन के बाद यह विचार फिर पलटा खा गया। यह क्रम बन्द न होता था। सदन में स्वच्छद विचार की योग्यता न थी। वह किसी विषय के दोष और गुण तौलने और परखने की सामर्थ्य न रखता था। अतएव प्रत्येक सबल युक्ति उसके विचारों को उलट-पलट देती हैं।

उसने एक दिन पद्मसिह के व्याख्यान का नोटिस देखा। तीन ही बजे से चलने की तैयारी करने लगा और चार बजे बेनीबाग में जा पहुँचा। अभी वहाँ कोई आदमी न था, कुछ लोग फर्श बिछा रहे थे। वह घोड़े से उतर पड़ा और बिछाने में लोगों की मदद करने लगा। पाँच बजते बजते लोग आने लगे और आध घंटे मे वहाँ हजारों मनुष्य एकत्र हो गये। तब उसने एक फिटन पर पद्मसिंह को आते देखा। उसकी छाती धड़कने लगी। पहले रुस्तम भाई ने एक छोटी सी कविता पढ़ी, जो इस अवसर के लिये सैयद तेगअली ने रची थी। उसके बैठने पर लाला विट्ठलदास खड़े हुए। यद्यपि उनकी वक्तृता रूखी थी, न कही भाषण लालित्यका पता था, न कटाक्षोंका, पर लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते रहे। उनके नि:स्वार्थ सार्वजनिक कृत्यों के कारण उनपर जनता की बडी श्रद्धा थी। उनकी रूखी बातों को लोग ऐसे चाव से सुनते थे जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीता है। उनके पानी के सामने दूसरों का शर्बत फीका पड़ जाता था। अन्त में पद्मसिंह उठे। सदन के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी, मानों कोई असाधारण बात होने वाली है। व्याख्यान अत्यन्त रोचक और करुणारस से परिपूर्ण था भाषा की सरलता और सरसता मन को मोहती थी। बीच-बीच मे उनके शब्द ऐसे भावपूर्ण हो जाते कि सदन के रोएँ खडे हो जाते थे। वह कह रहे थे कि हमने वेश्याओं को शहर के बाहर रखने का प्रस्ताव इसलिए नहीं किया कि हमें उनसे घृणा है। हमे उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके