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सेवासदन
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पर सबसे महत्वशील वह भाग होगा जिसमे में दिखाऊँगा कि अपनी कुल मर्यादा के मिटाने वाले हम है। हम अपनी कायरता से, प्राण भय से, लोकनिन्दा के डर से, झूठे संतान प्रेम से अपनी बेहयाई से आत्मगौरव की हीनता से ऐसे पापा चरणों को छिपाते है, उन पर परदा डाल देते है। इसी का यह परिणाम है कि दुर्बल आत्माओं का साहस इतना बढ़ गया है।

कृष्णचन्द्र ने यह संकल्प तो कर लिया पर अभी तक उन्होंने यह न सोचा कि शान्ता की क्या गति होगी। इस अपमान की लज्जा ने उनके हृदय में ओर किसी चिन्ता के लिये स्थान न रखा था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी जो अपने बालक को मृत्युशय्यापर छोड़कर अपने किसी शत्रु से वैर चुकाने के लिये उद्यत हो जाय, जो डोंगीपर बैठा हुआ पानी में एक सर्प देखकर उसे मारने के लिये झपटे और उसे यह सुधि न रहे कि इस झपट से डोगी डूब जायगी।

संध्या का समय था। कृष्णचन्द्र ने आज हत्या मार्गपर चलने का निश्चय कर लिया था। इस समय उनका चित्त कुछ उदास था। यह वही उदासीनता थी जो किसी भयंकर काम के पहले चित्तपर आच्छादित हो जाया करती है। कई दिनों तक क्रोध के वेग से उत्तेजित और उन्मत्त रहने के बाद उनका मन इस समय जछ शिथिल हो गया था जैसे वायु कुछ समय तक वेग से चलने के बाद शान्त हो जाती है। चित्त की ऐसी अवस्था में यह उदासीनता बहुत ही उपयुक्त होती है। उदासीनता वैराग्य का एक सूक्ष्म स्वरूप है जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवनपर विचार करने की क्षमता प्रदान कर देती है, उस समय कि जब पूर्वस्मृतियाँ हृदयमे क्रीड़ा करने लगती है। कृष्णचन्द्र को वह दिन याद आ रहे थे जब उनका जीवन आनन्दमय था, जब वे नित्य सन्ध्या समय अपनी दोनों पुत्रियों को साथ लेकर सैर करने जाया करते थे। कभी सुमन को गोद उठाते, कभी शान्ता को जब वे लोटते तो गंगाजली किसी तरह ने प्रेम से दौड़कर दोनों लड़कियों को प्यार करने लगती थी। किसी आनन्द का अनुभव इतना सुखद नहीं होता जितना उनका स्मरण। वही जंगल और पहाड़ जो कभी आपको सुनसान और