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सेवासदन
 


कोठे खाली हो गये। उन वेश्याओं ने भावी निर्वासन के भय से दूसरी जगह रहने का प्रबन्ध कर लिया। किसी कानून का विरोध करने के लिए उससे अधिक संगठन की आवश्यकता होती है जितनी उसके जारी करने के लिए। प्रभाकरराव का क्रोध शान्त होने का यह एक और कारण था।

पद्मसिंह ने इस प्रस्ताव को वेश्याओं के प्रति घृणा से प्रेरित होकर हाथ में लिया था, पर अब इस विषय पर विचार करते करते उनकी घृणा बहुत कुछ दया और क्षमा का रूप धारण कर चुकी थी। इन्हीं भावों ने उन्हें तरमीम से सहमत होने पर बाध्य किया था। सोचते, यह बेचारी अबलाएँ अपनी इन्द्रियों के सुखभोग में अपना सर्वस्वनाश कर रही है। विलास प्रेम की लालसा ने उनकी आँखें बन्द कर रखी है। इस अवस्था में उनके साथ दया और प्रेम की आवश्यकता है। इस अत्याचार से उनकी सुधारक शक्तियाँ और भी निर्बल हो जायेंगी और जिन आात्माओं का हम उपदेश से, प्रेम से, ज्ञान से, शिक्षा से उद्धार कर सकते हैं वे सदा के लिए हमारे हाथ से निकल जायेगी। हम लोग जो स्वयं माया-मोह के अन्धकार में पड़े हुए हैं, उन्हें दण्ड देने का कोई अधिकार नहीं रखते। उनके कर्म ही उन्हें क्या कम दण्ड दे रहे है कि हम यह अत्याचार करके उनके जीवन को और भी दुःखमय बना दे?

हमारे मन के विचार कर्म के पथदर्शक होते हैं। पद्मसिंह ने झिझक और संकोच को त्यागकर कर्म क्षेत्र में पैर रखा। वहीं पद्मसिंह जो सुमन के सामने से भाग खड़े हुए थे अब दिन दोपहर दालमंडी के कोठों पर बैठे दिखाई देने लगे, उन्हें अब लोकनिन्दा का भय न था, मुझे लोग क्या कहेंगे इसकी चिन्ता न थी। उनकी आत्मा बलवान हो गई थी, हदय में सच्ची सेवा का भाव जाग्रत हो गया था। कच्चा फल पत्थर मारने से भी नहीं गिरता, किन्तु पककर वह आप ही आप धरती की ओर आकर्षित हो जाता है। पद्मसिंह के अन्तःकरण में सेवा का—प्रेम का भाव परिपक्व हो गया था।

विट्ठलदास इस विषय में उनसे पृथक हो गए। उन्हें जन्म की