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सेवासदन
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एक दिन भी और रह जाती तो आश्रम बिलकुल खाली हो जाता। वहॉं से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमे उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहाँ से हम एक्का करके मुगलसराय चली जायँगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जायगी। यहाँ से रात को कोई गाड़ी नहीं जाती।

सदन— अब तो तुम अपने घर ही पहुंँच गई, अमोला क्यो जाओगी। तुम लोगो को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनन्द हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। से तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूँ। यह तुम्हारा झोपड़ा है, चलो अन्दर चलो।

सुमन झोपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वही अन्धेरे में चुपचाप सिर झुकाये रो रही थी। जबसे उसने सदन सिंह मुँह से यह बाते सुनी थी, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने पर पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आँखों में फिरती और उसकी बाते उसके कानों में गूँजती। बातें कठोर थी लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थी। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश है। अपदी माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूँ। हाँ! मैंने अपने स्वामी से मान किया, मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती जाती थी। इस शोक, चिन्ता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गयी थी, जैसे जेठ के महीने में नदी सूख जाती है।