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सेवासदन
३०७
 


झुककर दूसरे को झुका सकते है, पर तनकर किसी को झुकाना कठिन है।

विट्ठलनाथ—शायद सदनसिंह को कुछ मालूम हो। जरा उन्हें बुलाइए।

शर्मा—वह तो रात से ही गायब है। उसने गंगा के किनारे एक झोपड़ा बनवा लिया है, कई मल्लाह लगा लिये है और एक नाव चलाता है। शायद रात वही रह गया।

विट्ठल-सम्भव है, दोनो बहने वही पहुँच गई हो, कहिए तो जाऊँ?

शर्मा—अजी नहीं, आप किस भ्रम में है। वह इतना लिबरल नहीं है। उनके साये से भागता है। अकस्मात् सदन ने उनके कमरे मे प्रवेश किया। पद्मसिंह ने पूछा, तुम रात कहाँ रह गये? सारी रात तुम्हारी राह देखी।

सदनसिंह ने धरती की ओर ताकते हुए कहा, मैं स्वयं लज्जित हूँ। ऐसा काम पड़ गया कि मुझे विवश होकर रुकना पड़ा। इतना समय भी न मिला कि आकर कह जाता। मैंने आपसे शर्म के मारे कभी चर्चा नहीं की, लेकिन इधर कई महीने से मैंने एक नाव चलाना शुरू किया है। वही नदी के किनारे एक झोपड़ा बनवा लिया है मेरा विचार है कि इस काम को जमकर करूँ। इसलिए आपसे उस झोपड़े में रहने की आज्ञा चाहता हूँ।

शर्मा—इसकी चर्चा तो लाला भगतराम ने एक बार मुझसे की, लेकिन खेद यह है कि तुमने अब तक मुझसे इसे छिपाया, नहीं तो मैं भी कुछ सहायता करता। खैर, मैं इसे बुरा नहीं समझता, बल्कि तुम्हें इस अवस्था मे देखकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है, लेकिन मैं यह कभी न मानूँगा कि तुम अपना घर रहते हुए अपनी हाँडी अलग चढाओ। क्या एक नाव का और प्रबन्ध हो तो अधिक लाभ हो सकता है?

सदन-—जी हाँ, में स्वयं इसी फिक्र में हूँ। लेकिन इसके लिए मेरा घाटपर रहना जरूरी है।

शर्मा- भाई, यह शर्त तुम बुरी लगाते हो। शहर मे रहकर तुम मुझसे अलग रहो, यह मुझे पसन्द नहीं। इसमे चाहे कुछ हानि भी हो, लेकिन मैं न मानूँगा।